Friday, September 26, 2008

कविता

महंगाई

- देवेंद्र कुमार मिश्रा

कभी नहीं था सोचा मैंने, ऐसा भी हो सकता है ।
बिन ईंधन के चलना मुश्किल, सब की हालत खसता है ।।
सब की हालत खसता है, ईंधन हुआ महंगा नशा ।
अमेरिका-ईरान संबंधों से, हुई यह दुर्दशा ।।
कच्चे तेल की बढ़ती कीमत, परेशान हैं आज सभी ।
दादा गिरी, आपना असत्तव, असर दिखाए कभी-कभी ।।

बिगड़ा पर्यावरण, कहीं है बाढ़-कहीं है सूखा ।
कृषि उत्पादन कमी आई है, आज किसान है भूखा ।।
आज किसान है भूखा, लागत ज्यादा उत्पादन कम ।
कर्जा चुका नहीं है पाता, तोड़ रहा है दम ।।
सुरसा जैसा मुँह फैलाए, महंगाई ने झिगड़ा ।
विदेशी आनाज मंगाया, देशी बजट है बिगड़ा ।।

मकान, सोना चाँदी, हुई आज है सपना ।
बेरोजगारी बढ़ती जाती, रंग दिखाती अपना ।।
रंग दिखाती अपना, आज है मुश्किल शिक्षा पाना ।
भ्रष्टाचार का जाल है फैला, योग्य-अयोग्य न जाना ।।
शादी के संजोए सपने, महंगाई फीके पकवान ।
कर्मचारी, मजदूर, किसान, बचा सके न आज मकान ।।
नेता की परिभाषा बदली, पाखंडी बनाया बेश ।

कभी भूनते तंदूरों में, बाहुबली चलाते देश ।।
बाहुबली चलाते देश, धर्म-जाति आपस लड़बाते ।
सत्ता में आ जाते , वेतन सुख-सुविधाएं पाते ।।
सब कुछ मंहगा मौत है सस्ती, लाज के ये क्रेता ।
कुछ नहीं सिद्धांत इनका, भ्रष्ट आचरण नेता ।।

दर-दर बढ़ती जनसंख्या, भूमि है स्थाई ।
कृषि भूमि में बनी हैं बस्ती, ऐसी नौबत आई ।।
ऐसी नौबत आई, जनसंख्या पर रोक लगाओ ।
नूतन तकनीती से, आवश्यकता पूर्ण कराओ ।।
विज्ञानकों का कर आह्वान, अविष्कार को कर ।
पर्यावरण का कर संरक्षण, रोको महंगाई की दर ।।

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