Tuesday, October 28, 2008

कविता

दिव्या माथुर जी की तीन कविताएँ

ज़ुबान

सिर पर चढ़ के
बोलता है झूठ यही सोच के
ख़ामोश हूँ मैं
इसका क़तई ये अर्थ न लो
कि मेरे मुँह में
ज़ुबान नहीं!

बचाव

कचहरी में बड़े बड़े झूठ
एक छोटे से
सच के सामने
सिर झुकाए खड़े थे

बाहर सबसे नज़रें चुराता

सच छिपता छिपाता
अपने बचने का

रस्ता ढूँढ रहा था ।

जंगल

शक और झूठ
बो दिये उसने मेरे मन में
खर पतवार से लगे वे बढ़ने
अब तो बस जंगल ही जंगल है
बाहर जंगलजंगल मन में!

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