Monday, December 15, 2008

अजय मलिक की दो कविताएँ


मैं काँटों को भी दर्द का अहसास कराना चाहता हूँ...

मैं काँटे बोता हूँ
अंकुरित होने पर
खूब सींचता हूँ
उग आने पर
चाव से उनपर चलता हूँ
और फ़िर से सींचता हूँ
काँटों की प्यास बुझने पर
मुस्कराते हुए मैं
अपने रक्त रंजित पैरों के
ज़ख्मों को सहलाता हूँ
एक-एक कर सारे काँटों को
संभालकर निकालता हूँ
मरहम लगाने से मुझे भी
चैन मिलता है मगर
काँटों को बुरा लगता है
पाँव ठीक होने पर मैं
फ़िर से कांटे बोता हूँ
फ़िर से वही सब दोहराता हूँ
हर बार मेरे पांवों से
रक्त बह जाता है
दर्द रह जाता है
पता नहीं काँटों को
खून में मिले दर्द को पीने में
मज़ा क्यूं नहीं आता, पर
मैं काँटों को भी दर्द का अहसास कराना चाहता हूँ ।


*****


नहीं गीत में गीत...

नहीं गीत में गीत बचा
नहीं ताल में ताल कहीं
न सुर में संगीत शेष है
न लय न झंकार कहीं

बादल में न बूँद शेष है
नहीं बचा है वेग पवन में
क्या सीपी की आस बचे, जहँ
धूल-धुँध भर, भरी गगन में

कहाँ गए सब बाग़ बगीचे
कहाँ ‘व’ दूब की हरियाली
कहाँ झील सी आँख मिले, जब
होठों तक न बची लाली

सरकारी पानी के नल हैं
पनघट कहाँ, कहाँ अब नीर
कैफ़े की यहाँ केक पेस्ट्री
सपना बनी अमावसी खीर

पार्क बन गए ‘उपवन’ सारे
महक रहे मलबे के ढेर
खेत बने बंगलों के गमले
माटी बिकी रूपए की सेर

पेशे से है यहाँ मित्रता
अर्थ नहीं कुछ मुस्कानों का
नहीं जानते ! शहर यह है
पत्थर के बुत इंसानों का ।

*****

1 comment:

Sherfraz said...

Your poetry is very realistic with these present situations. We expect more and more in the new year comming. My congrats and Happy new year greetings.

Dr.S.Baheer.
Off:- 044-28516691.