Sunday, April 5, 2009

कविता

मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का, मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?


- जय नारायण त्रिपाठी


मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का,
मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?
वो कूकेगी आम्र वृक्ष की शाखाओं पर,
मृदु किसलयों की ओट में
खुद को छिपलाकर
क्या तनिक उसे ये भान नहीं,
एक दिन वो हरित डाल भी सूखेगी ?
मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का,
मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?
मेरे शूलों का स्नेह त्याग,
औ' बैठ वहां, छेड़ती विहग राग
मुझे दर्प में ठुकराया पर,
एक दिन ये स्वर लहरी भी तो रूखेगी !
मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का,
मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?
फल न दे पाऊ मैं भले,
मगर जलने को तन तो दे सकता हूँ
प्रीत की खातिर मुझे बचाने तब,
क्या बार बार वो फूकेगी ?
मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का,
मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?

3 comments:

Unknown said...

संवेदना की अभिव्यक्ति सुंदर ढंग से की है आपने इस कविता में, आपकी लेखनी से ऐसी कई और भावनाएँ सृजित हो, अभिनंदन सहित..

Harihar said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति त्रिपाठी जी

जय नारायण त्रिपाठी said...

Dhanyawad :)