Thursday, April 9, 2009

कविता

कुण्डलिनी


- आचार्य संजीव 'सलिल', संपादक, दिव्य नर्मदा

करुणा संवेदन बिना, नहीं काव्य में तंत ।
करुणा रस जिस ह्रदय में वह हो जाता संत ।।
वह हो जाता संत, न कोई पीर परायी ।
आँसू सबके पोंछ, लगे सार्थकता पाई ।।
कंकर में शंकर दिखते, होता मन-मंथन ।
'सलिल' व्यर्थ है गीत, बिना करुणा संवेदन ।।

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सदा समय पर जो करे, काम और आराम ।
मिले सफलता उसी को, वह पाता धन-नाम ।।
वह पाता धन-नाम, न थक कर सो जाता है ।
और नहीं पा हार, बाद में पछताता है ।।
कहे 'सलिल' कविराय, न खोना बच्चों अवसर ।
आलस छोडो, करो काम सब सदा समय पर ।।

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कविता होती है 'सलिल', जब हो मन में पीर ।
करे पीर को सहन तू, मन में धरकर धीर ।।
मन में धरकर धीर, सभी को हिम्मत दे तू ।
तूफानों में डगमग नैया, अपनी खे तू ।।
विजयी वह जिसकी न कभी हिम्मत खोती है ।
ज्यों की त्यों चादर हो तो कविता होती है ।।

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