Thursday, April 30, 2009

कविता

बूढे सपने !


- प्रदीप पाठक


वो देखो !
गाँव की मस्जिद.
आज भी नमाज़ को तरस रही है.
फूलों के पेड़ -
बच्चो के स्कूल,
सब सुने पड़े हैं.

लगता है-
आज फिर काफिला आया है.
सिपाहियों का दस्ता लाया है.

गाओं की पखडंडियाँ
फिर से उजाड़ हो गई.
मौलवी की तमन्ना,
फिर हैरान हो गई.

फिर मन को टटोला है.
जंग ने फिर से कचौला है.
दर्द भी पी लिया है.
अपनों से जुदा हुए-
पर अरमानो को सी लिया है.

खामोश आँखों ने-
फिर ढूंढा है सपनों को.
नादान हथेलियों में-
फिर तमन्ना जागी है.

पर क्यूँ सरफरोश हो गई,
आशाएँ इस दिल की.
क्यूँ कपकपी लेती लौ,
मोहताज़ है तिल तिल की.

टिमटिमाते तारे भी,
धूमिल से हैं.
बारूद के धुएँ में जुगनू भी,
ओझल से हैं.

बस करो भाई!
अब घुटन सी हो रही है.
न करो जंग का ऐलान फिर-
चुभन सी हो रही है.

बड़ी मुश्किलों से,
रमजान का महीना आया है.
मेरी तख्दीर की आखिरी ख्वाहिश को,
संग अपने लाया है.

कर लेने दो अजान
फिर अमन की खातिर,
बह लेने दो पुरवाई
बिखरे चमन की खातिर.

यूँ खून न बरसाओ !
अबकी सुबह निराली है.
हर पतझड़ के बाद मैंने-
देखी हरियाली है.



- ये रचना हाल ही में हुए बम धमाकों से प्रेरित है । ये उस गाँव का हाल बताती है जिसको खाली करवा दिया गया है । क्यूंकि वहां कभी भी जंग हो सकती है । वो सारे गाँव के लोग हर दम खानाबदोश की ज़िंदगी जीते हैं । मै सोचता हूँ हम हर बार क्या खो रहे हैं इसका ज़रा सा भी इल्म नहीं हमको ।

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