Friday, June 19, 2009

आलेख







गांधी की राह पर जापानी संत फुजीई गुरुजी









- चंद्रकांत कृष्णराव हिवरे, पीएच.डी. के शोधार्थी,
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
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महात्मा गांधी के सापेक्ष इस वर्तमान दुनिया में कई व्यक्तियों को याद किया जा सकता है, जैसे मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला आदि. लेकिन गांधी के सापेक्ष यदि फुजीई गुरूजी के विषय में विचार करते हैं, तो गांधी की प्रासंगिता के बारे में ही नहीं, बल्कि अंहिसा, सद्भाव व मानव जाति में समानता के उनके संदेश व कार्यों को आगे बढ़ाने की जीवित परंपरा के अनुकरण को सामने देख पाते हैं.
निश्चित रूप से 20 वीं सदी के पहले अर्द्धांश में मात्र महात्मा गांधी का व्यक्तित्व ही ऐसा था, जो शोषण, असमानता, मानव में निहित बुराइयों को लक्षित करते हुए और उसके विरुद्ध संघर्ष करने वाले विश्व के कार्यकर्ताओं के लिए एक प्रेरणा प्रदान करने में सक्षम था. लेकिन गांधी की असमय हुई हत्या ने अहिंसा और समानता के एक वैश्विक आंदोलन में जैसे रोक लगा दी. यह प्रश्न अभी भी शेष है कि यदि गांधीजी जीवित रहते, तो भविष्य में क्या करते. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह तो गांधीजी ने ही घोषित कर दिया था कि वे शांति प्रयासों के लिए पाकिस्तान जाएंगे. लेकिन इसके बाद द्वितीय विश्व युद्ध की महाविभीषकता देखते हुए प्रतीत यही होता है कि जिस भूमिका को बाद में फुजीई गुरुजी ने निभाई, शायद गांधी भी यही करते. स्थानीय मंचों से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे वैश्विक मंचों पर फुजीई गुरुजी ने अहिंसा के संदेश को प्रसारित किया, बल्कि नाभिकीय हथियारों पर प्रतिबंध लगाने के वैश्विक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी ही नहीं निभाई, बल्कि इस आंदोलन के सूत्रधार, रणनीतिकार वही थे.
जैसा पूर्व में कहा गया कि गांधी यदि भविष्य में और जीवित रहते, तो क्या करते. निश्चित रूप से भारत के प्रति अपने दायित्व को पूरा करने के बाद वे विश्व के प्रति अपने दायित्व को पूरा करने का प्रयास करते. आज भी विश्व के बड़े से लेकर छोटे सभी देशों में उनके राष्ट्रीय बजट में शिक्षा के लिए जितना पैसा खर्च किया जाता है, उससे कई-कई गुना देश की सुरक्षा व अत्याधुनिक हथियारों पर खर्च होता है. किसी विकसित-अविकसित देश में शिक्षा से ज्यादा पैसा सुरक्षा आदि में खर्च करना निश्चित रूप में एक पापपूर्ण कार्यवाही ही है. फुजीई गुरु के विषय में यह तथ्य हमें एक ऐसे निष्कर्ष की ओर ले जाता है, जिसकी ओर हमारा ध्यान ही कभी नहीं जाता. महात्मा गांधी की पौत्री सुमित्रा कुलकर्णी ने अपने वर्धा में महात्मा गांधी के आश्रम में बिताए वर्षों की याद करते हुए लिखी थी कि ‘आश्रम आने वाले सभी व्यक्ति उन बच्चों से बचते थे, लेकिन फुजीई गुरुजी न केवल बच्चों के संपर्क में स्वयं खुश महसूस करते थे, बल्कि अपनी अध्ययन सामग्री, पूजा साम्रगी आदि के विषय में बच्चों की जिज्ञासा शांत करते थे और अपना अनुकरण करने के लिए प्रेरित करते थे.’ यह बात सामान्य नहीं है. यह तथ्य यह इशारा करता है कि गुरुजी अपनी, अपने समाज की भावी पीढ़ी के प्रति क्या नजरिया रखते थे. यही कारण है कि हम कह सकते हैं कि नाभिकीय हथियारों के विरुद्ध आंदोलन का मुख्य उद्देश्य भावी पीढ़ी को बचाना और शिक्षित सभ्य और एक सुरक्षित दुनिया देना था.
कई बार ऐसा होता है कि गुरुजी को मात्र एक धार्मिक व्यक्ति समझकर राजनितक विचारों की दुनिया से अलग-थलग कर दिया जाता है. लेकिन वास्तविकता में इस समझदारी में कोई सच्चाई नहीं है, बल्कि यह एक षडयंत्र ही है. क्योंकि इस तर्क से गांधी भी कम धार्मिक व्यक्ति नहीं थे. फिर स्वयं गांधीजी ने गुरुजी के राजनीतिक विचारों का सम्मान किया. एक बार फिर गांधीजी पौत्री सुचित्रा कुलकर्णी के हवाले से कहें कि आश्रम में गुरुजी के आने के बाद ही ना म्यू म्यो हो रंगे क्यो के मंत्र को आश्रम की प्रार्थना में गांधीजी ने शामिल किया था. जो इस बात का संदेश है कि गांधीजी गुरुजी को मात्र एक बौद्ध संत के रूप में नहीं, बल्कि अहिंसा के राजनीति प्रचारक की हैसियत से देख रहे थे.
स्वयं गुरुजी ने अपनी धार्मिकता को कभी मानव समाज के कल्याण के विचार के ऊपर हावी भी नहीं होने दिया. इस बात को इस उदाहरण से समझा जा सकता है. स्वयं गुरुजी ने विश्व में हजारों शांति पैगोडा बनाने के कार्य को किया. इन स्थानों पर हर आम आदमी को जाने की इज़ाजत होती है. अब यदि वे मात्र धार्मिक व्यक्ति होते, निश्चित तौर पर इन स्थानों पर अन्य धर्मों के लोगों को जाने की इज़ाजत नहीं होती. लेकिन ऐसा नहीं है. गुरुजी स्वयं एक बार पैगोडा बनाने का तर्क को बताया था. उनका मानना था कि इन स्थानों को देख कर व्यक्ति के मन पर उस व्यक्ति के विचारों की ओर सोचने का अवसर मिलता है, जिसकी स्मृति में ये बनाए जाते हैं. यह सामान्य जानकारी है कि पैगोडा महात्मा बुद्ध की स्मृति में बानाए जाते हैं और बौद्ध धर्म का तात्पर्य पूरी दुनिया में एक अहिंसा के संदेश से ही लिया जाता है.
वर्तमान की क्रूर हो चुकी दुनिया में, जहाँ आतंकवाद, हिंसा, मानवीय समाज का उत्पीडन, शोषन व वंचन ही विद्यमान है, वहाँ गांधीजी संदेश की हमेशा प्रसांगिता विद्यमान है. लेकिन गांधी के संदेश को वैश्विक स्तर पर किस तरह से कार्यरूप देना है, क्या रणनीति अपनानी है, इसके लिए निश्चित रूप से फुजीई गुरुजी को याद करना पड़ता है. शायद गांधीजी व गुरुजी सम्मान देने का यही तरीका है कि उनके संदेश को किस तरह कार्यरूप में तब्दील किया जाए व आमजन अहिंसा के आदर्शों को अपनाए.

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में गांधीजी व फुजीई गुरुजी के अंतर्संबंधों पर फुजीई गुरुजी शांति अध्ययन केंद्र में निर्देशक प्रोफ़ेसर मनोज कुमार एवं मनसाराम नितनवरे के मार्गदर्शन पीएच.डी. के लिए शोध कार्य कर रहे हैं.)

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