Wednesday, July 1, 2009

व्यंग्य

एक आदमी की मौत









- आर.के. भँवर





वह जो मर गया है आदमी ही था । सुबह का वक़्त । लोग टहलने के लिए निकले थे । उसकी लाश सड़क के किनारे पड़ी थी । कौन था ? कैसे मरा वह ? ये कई सवाल ऐसे थे जो कुछेक लोगों के जेहन में उभर रहे थे । पर मरने वाला एक आदमी था, कपड़े लत्ते से लग रहा था कि वह ऊंची जमात का नहीं था । खून से उसकी काया लथपथ भी नहीं थी, वह सड़क के किनारे इस तरह पड़ी थी मानो गहरी नींद में सो रहा हो कोई । कुछ लोग उसे घेरे हुए थे । घेरा बनाने वाले दूर-दूर तक मार्निंग वॉक से मतलब नहीं रखते थे । वे सब आचरज से देख रहे थे । हलांकि वे उसके रिश्तेदार नहीं थे।

मार्निंग वॉक वाले लोग सिर्फ वाकिंग पर थे । कुछ एक ऐसे भी थे जो कुछ-कुछ समाजशास्त्र के जानकार थे । जौगिंग करते करते एक ने दूसरे से कहा कि होगा यह कि रात ज्यादा पी ली होगी या फिर कहीं लड़ा-झगड़ा होगा । मजबूत पार्टी वाले ने ढेर कर दिया होगा । “पर खून तो बहा नहीं, नही नही ऐसा नही हुआ होगा ?” उल्टे प्रश्न को सीधा करते हुए दूसरे ने कहा । तभी हल्की दौड़ में शामिल एक दूसरे ने पूछा कि अब मौत आ गई तो आ गई । वो किसी से पूछ कर तो आती नहीं । अब जैसे शर्मा जी को ही ले लें, मार्निंग वॉक के लिए तैयार हुए ही थे कि दिल जबर्दस्त दौड़ पड़ा, नहीं उठ पाये फिर ।

निकलने वालों के लिए मरे आदमी की लाश चर्चा में तो थी, पर सभ्य और कुलीन लोग उस जगह रूक कर अपना समय खराब नहीं करना चाहते थे । समाज की सभ्यता शिखर पर थी । कोई अपना समय मरे आदमी के वास्ते क्यों खराब करे ? जिसको जाना था वह चला गया । किसी को पहले से बताकर पैदा भी नहीं हुआ था वह । फिर उन्हें तो रहना है । गणित भी यही कहती है और समाज का अर्थशास्त्र भी । अब कोई मरनेवाले के साथ तो मर नहीं जाता है । और मरे व्यक्ति बहुत दिनों तक जेहन में रहते भी नहीं हैं । पुराने पत्तो पेड़ से अपना स्थान इसलिए खारिज कर देते हैं कि नये पत्ते निकल आए । मिट्टी में मिलने पर वही पत्ते खाद बन जाएंगे । पत्तों और आदमियों के फलसफे में यहीं तो होता है बुनियादी अंतर ।

अब जिसे मरना था, वह तो मर गया । समझदारी इसी में थी कि समाज का काम अनवरत चलता रहे । चलता तो रहता है, पर यह सब वैसे ही है जैसे फिल्म शुरू होने से पहले न्यूज रील के चलने जैसा हो । इधर आदमी भी बड़े बेभाव मर रहे हैं । कुंडी खटखटायी, बुढ़िया ने जैसे दरवाजा खोला कि छुरा उसके पेट में और कुंडी खटखटाने वाला घर के अंदर। अखबारों में तो रोजबरोज ऐसी ही सूचनाएं पढ़ने को मिलती हैं । गाड़ी चला रहे थे, सामने वाले को बचाने में लगे कि खुद पलट गए । अस्पताल में ब्रेन हैमरेज फिर सीधे ऊपर । पहले बाल्टी मेरी भरेगी, नहीं पहले मेरी, मेरी, मेरी कहते कहते गुम्माबाजी हो गई, एक दर्जन घायल और कुछेक ने दम तोड़ दिया । पहले जैसे बच्चा-बच्ची गुड्डे-गुड़िया का खेल खेलते थे अब बड़े लोग 'इसे मारो-उसे मारो' का खेल रहे हैं। सुपाड़ी दो, पूरी न मिले तो सुपाड़ी की कतरन दो, काम दोनों में ही चलना है । आदमी का मारा जाना अथवा उसे मारना आज की दुनिया का अहम् व्यवसाय है । बाहुबली से कभी श्री हनुमान जी का बोध होता था, अब इससे दाउद भाई, छोटा, बड़ा, मंझला शकील, पप्पू यादव, बबलू भैया, आदि-आदि का । संकटमोचन हैं, इसलिए उनके नाम के स्मरण मात्र से धंधे की कोई भी वैतरणी पार लग जाएगी । हाथी, पंजा, कमल, साईकिल, लालटेन, ताला-चाभी सभी तो इनके दम पर चलते और लगते हैं । कहीं कम तो कहीं ज्यादा ।

सबसे सस्ती है आदमी की जान । इसे जब चाहें, जहां चाहें, कोई वॉट लगा सकता है । घर से निकले कि बाहर घमाघम, ढेर हो गए । मरते ही, वह मान्यताओं की खाल ओढ़े समाज की चिंता का विषय बन जाता है । कुछ समय के लिए वह मानवाधिकार चिंतकों का मुद्दा भी है और अखबारों की सनसनी भी । पर एक आदमी की मौत से कोई हिलता क्यों नहीं, क्या उसकी मौत में जिंदा आदमी अपनी सूरत नहीं देख पा रहा है । सांस-सांस मर रहे आदमी और अचानक मर गए आदमी में चिंता स्वाभाविक है । उस मरे आदमी को घेरे हुए उन लोगों के पास कोई काम-धाम नहीं है । सड़क पर इधर-उधर घूमना ही था उन्हें, अब क्या करें इधर-उघर जाकर, इस मरे आदमी के पास ही खड़े हो जाते हैं, समय ही कटेगा कुछ । खड़े लोगों से उसके मरने का कोई ताल्लुक नहीं है । वे तमाशबीन हैं । डुग्गी बजाते मदारी के पास भी वे लोग वैसे ही खड़े जाते हैं । जो नहीं खड़े थे, उनकी भी आत्मा उधर ही भटक रही थी, पर खड़े इस वास्ते नहीं हो सकते थे क्योंकि वे या तो अपने वाहन से उतर कर आम आदमी की कोटि में आने से अपनी बेइज्जती समझते थे या अंग्रेजी पहचान देने वाली पोशाक पहने थे । स्टेटस तो देखना ही पड़ता है । अब यह आदमी होटल ताज के अंदर गिरा, पड़ा व मरा मिलता तो वे सूट-बूट वाले साहेब का वहां पर खड़े होकर हमदर्दी दिखना मुनासिब था । सड़क है । सड़क की भाषा और व्याकरण चलताऊ किस्म का होता है । सड़क पर चलते लोग भीड़ के किस्म में होते हैं । भीड़ नारा लगा सकती है, उत्पात मचा सकती है, झंडा उठा सकती है । भीड़ संवेदना का वरण नहीं कर पाती है । मरने वाले आदमी का घेरा भीड़ जब बढ़ा लेती है, तो आंदोलन के समीकरण बनाने बिगाड़ने वाले चतुर सुजान भी जुट जाते हैं । यह भी ज्यादा देर तक नहीं चलता है । भीड़ की भाषा संवेदना के सुर से अलग है। संवेदना अकेले आदमी की थाती है । दिल की बात दिल तक जाती है।

एक आदमी की मौत न्यूज की लाईन के बन जाने के बाद भी आम आदमी के जेहन में अपनी पैठ नहीं बना पा रही है । पर रोज सड़क पर कुत्ता टहलाने वाले बाबू मोशाय का कुत्ता जब किसी गाड़ी के नीचे आकर जीभ लंबी कर देता है, तो बाबू मोशाय से मरे कुत्ते के प्रति शोक जताने वाले कई कई लोग जुट जाते हैं । इसीलिए आदमी रोज बरोज मर रहे हैं । दोपहिए, चौपहिए, मालगाड़ी, हथगोले, बंदूक न जाने कितने-कितने निमित्ता उसे मरने, मारने व मिटाने में लगे हुए हैं । आतंक के साये में जी रहे अंचलों में आदमी रात भर जगते हैं, केवल सुबह थोड़ी देर तक सो लेते हैं । एक आदमी की मौत यदि हमारा सरदर्द नहीं बनती है तो समझ लेना चाहिए कि कहीं कोई बीमारी जन्म ले रही है । समय से उसका उपचार जरूरी है क्योंकि संवेदनहीनता का रोग ऐसा मठ्ठा है जो इन्सानियत के दरख्त की जड़ों में जाने से समूचे पेड़ को ठूंठ में तब्दील कर देगा । हुआ भी यही, जब उस मरे आदमी की तफ्तीश के वास्ते देर दोपहर में पुलिस आई और पंचनामा के लिए पांच आदमियों से दस्तखत करने के लिए कहा, तो सबके सब भाग खड़े हुए । किसी ने कुछ देखा ही नहीं, कब हुआ कुछ पता ही नहीं । इधर से बस गुजर रहे थे, इस मरे को देखा तक नहीं । कौन है, पता नहीं । कैसे मरा, राम जाने । अब मरने वाले के साथ कोई मर नहीं जाता है, यह समाज की बारीक सोच थी । पुलिस ने कहा तो यहां खड़े क्यों थे ? जवाब मिला, यहां कहां, अरे हम तो बस का इंतजार कर रहे थे, ये तो बाद में पता चला कि मेरे पीछे एक मरे आदमी की लाश पड़ी है । और आप ? पुलिस ने दूसरे से पूछा । मै, वो इनसे घड़ी का टैम पूछने के लिए रूक गया था ।

सिपाही जी दरोगा जी से बोले – “साहेब यह पांच दस्तखत तैयार, हो गया पंचनामा ।”
“इस तरह आदमी तो रोज मरा करते हैं, फालतू टैम है का” - दरोगा ने डांट पिलाई । “चलो कुछ धंधेवाला काम भी करना है ।”




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