Thursday, April 30, 2009

कविता

बूढे सपने !


- प्रदीप पाठक


वो देखो !
गाँव की मस्जिद.
आज भी नमाज़ को तरस रही है.
फूलों के पेड़ -
बच्चो के स्कूल,
सब सुने पड़े हैं.

लगता है-
आज फिर काफिला आया है.
सिपाहियों का दस्ता लाया है.

गाओं की पखडंडियाँ
फिर से उजाड़ हो गई.
मौलवी की तमन्ना,
फिर हैरान हो गई.

फिर मन को टटोला है.
जंग ने फिर से कचौला है.
दर्द भी पी लिया है.
अपनों से जुदा हुए-
पर अरमानो को सी लिया है.

खामोश आँखों ने-
फिर ढूंढा है सपनों को.
नादान हथेलियों में-
फिर तमन्ना जागी है.

पर क्यूँ सरफरोश हो गई,
आशाएँ इस दिल की.
क्यूँ कपकपी लेती लौ,
मोहताज़ है तिल तिल की.

टिमटिमाते तारे भी,
धूमिल से हैं.
बारूद के धुएँ में जुगनू भी,
ओझल से हैं.

बस करो भाई!
अब घुटन सी हो रही है.
न करो जंग का ऐलान फिर-
चुभन सी हो रही है.

बड़ी मुश्किलों से,
रमजान का महीना आया है.
मेरी तख्दीर की आखिरी ख्वाहिश को,
संग अपने लाया है.

कर लेने दो अजान
फिर अमन की खातिर,
बह लेने दो पुरवाई
बिखरे चमन की खातिर.

यूँ खून न बरसाओ !
अबकी सुबह निराली है.
हर पतझड़ के बाद मैंने-
देखी हरियाली है.



- ये रचना हाल ही में हुए बम धमाकों से प्रेरित है । ये उस गाँव का हाल बताती है जिसको खाली करवा दिया गया है । क्यूंकि वहां कभी भी जंग हो सकती है । वो सारे गाँव के लोग हर दम खानाबदोश की ज़िंदगी जीते हैं । मै सोचता हूँ हम हर बार क्या खो रहे हैं इसका ज़रा सा भी इल्म नहीं हमको ।

Sunday, April 26, 2009

कृष्ण कुमार यादव कृत काव्य संग्रह ‘अभिलाषा’ पर समीक्षा गोष्ठी




साहित्य अकादमी म0प्र0 संस्कृति परिषद भोपाल के छिन्दवाड़ा पाठक मंच केन्द्र द्वारा गुडविल एकाउंटस अकादमी और म0प्र0 आंचलिक साहित्यकार परिषद के संयुक्त तत्वाधान में युवा कवि एवं भारतीय डाक सेवा के अधिकारी श्री कृष्ण कुमार यादव के काव्य संग्रह ‘अभिलाषा’ पर 16 अप्रैल, 2009 को छिन्दवाड़ा के मानसरोवर काम्पलेक्स में समीक्षा गोष्ठी आयोजित की गयी। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. कौशल किशोर श्रीवास्तव ने कहा कि अभिलाषा काव्य संग्रह का सम्पादन अत्यधिक प्रशंसनीय है तथा कविताओं के वर्गीकरण ने उसे सुन्दर बना दिया है। कवि का अभिजात्य शब्द चयन उसे सबसे ऊपर और सबसे अलग रख देता है। सम्पादन में नारी के तीनों रुपों के नीचे ईश्वर को रखा गया है जो दृष्टव्य है। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुये वरिष्ठ साहित्यकार श्री लक्ष्मी प्रसाद दुबे ने कहा कि संग्रह की कवितायें अपनी मानवीयता, कोमलता, लय तथा प्रेम भावना के साथ कहीं कल्पना तो कहीं वास्तविकता के साथ मिलकर एक सरस प्रवाह के रूप में पाठकों को निमग्न करने में सक्षम हैं । उन्होंने अपने समीक्षा आलेख में पढ़ा कि इन कविताओं में जहाँ एक तरुण हृदय की भावुकतापूर्ण श्रृंगार रस में डूबी प्रणय भावना का सुन्दर चित्रण हुआ है, वहीं प्रकृति के विभिन्न रूपों के प्रति प्रेम एवं लगाव के साथ ही विचार प्रधान और बौद्धिकता से अधिक मार्मिक और प्रभावी भाव रचनाओं में चित्रित हुये हैं। विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित वरिष्ठ कहानीकार श्री गोवर्धन यादव ने अपने समीक्षा आलेख में पढ़ा कि संग्रह में कवि ने अपने बहुरूपात्मक सृजन में प्रगति के अपार क्षेत्रों में विस्तारित आलम्बनों को विषयवस्तु के रूप में प्राप्त करके हृदय और मस्तिष्क के रसात्मकता से कविता के अनेक रूप बिम्बों में सँजोने का प्रयास किया है। इन कविताओं में जहाँ व्यक्तिगत सम्बन्धों, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक समस्याओं और विषमताओं, जीवन मूल्यों के साथ हो रहे पीढ़ियों के अतीत और वर्तमान के टकरावों तथा प्रगति के पर्यावरणीय विक्षोभों का खुलकर भावनात्मक अर्थ शब्दों में अनुगुंजित हुआ है, वहीं परा-अपरा, जीवन दर्शन, विश्व बोध, विज्ञान बोध से उपजी अनुभूतियों, बाल विमर्श, स्त्री विमर्श तथा जड़ व्यवस्था और प्रशासनिक रवैये को भी कवि कृष्ण कुमार यादव ने अनेक रुपों में चित्रित किया है।

वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेन्द्र वर्मा ने कहा कि संग्रह की प्रत्येक कविता संदेशप्रद और कवि की आध्यात्मिक चेतना का प्रतिबिम्ब दिखाने वाली है। गेयता के अभाव के बावजूद कविता प्रभाव डालती है। कवि ने ‘माँ’ कविता से संग्रह का प्रारम्भ कर मानो इष्टदेवी वन्दना की है और उसका ममत्व पूरे संग्रह पर छाया है। यहाँ तक कि ‘प्रेयसी’ से सम्बन्धित कविताओं में भी गरिमा है। ‘तुम्हारी खामोशी’ कविता प्रेम की शिखर अनुभूति का शब्द दर्पण है। वरिष्ठ साहित्यकार श्री रत्नाकर ‘रतन’ ने कहा कि कवि ने मानवीय गतिविधियों, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिवेश और सांस्कृतिक मूल्यों के विविध आयामों को कविता में पिरोया है। माँ और ईश्वर खण्ड की कवितायें ज्यादा प्रभावित करती हैं। कवितायें बहुत ही सहज और सरल हैं। वरिष्ठ साहित्यकार श्री परसराम तिवारी ने कहा कि संग्रह में कवि की सरलतम शब्दों में गहनतम अभिव्यक्ति है तथा कवि ने वास्तविकता के धरातल पर जीवन के अनुभव को कविता में ढाला है। कवि साम्यवादी विचाराधारा से भी प्रभावित लगता है। म0प्र0 आंचलिक साहित्यकार परिषद की जिला शाखा के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री शिवशंकर शुक्ल ‘लाल’ ने अपने समीक्षा आलेख में पढ़ा कि इस कृति की प्रत्येक कविता में शब्दों एवं विचारों में क्रमबद्धता और लयात्मकता है जो पाठक को बांधे रखती है एवं कवि की श्रेष्ठता एवं सृजनात्मकता को प्रमाणित करती है। यह सार्थक कृति भाषा शैली और शिल्प की दृष्टि से भी विशिष्टता और पहचान के सुयोग्य है। संग्रह में उपमायें, प्रतीक बिम्ब तो हैं ही, अमिधा, लक्षणा और व्यंजना का रंग संकलन का अतरंग है जो विषय वस्तु की प्रकृति और प्रवृत्ति दोनों उजागर करता है। प्रबुद्ध पाठक डॉ. संतोष कुमार नाग के समीक्षा आलेख में पढ़ा गया कि इस कृति में जीवन के विभिन्न पहलुओं को छू लेना कवि की समग्रता को दर्शाते हैं। मनोभावों को शब्दों के रूप में आकार-प्रकार देकर अहसास को संसेदना के साथ व्यवस्थित कर कवि ने कृति में जान डाल दी है जो उसके बहुआयामी विचारों की पैठ दर्शाती है। युवा साहित्यकार श्री ओमप्रकाश ‘नयन’ ने कहा कि 12 खण्डों में विभाजित इस संग्रह में 88 कवितायें हैं जो कवि की अभिलाषाओं की उड़ान के रूप में सामने आती हैं। कवि जहाँ प्रकृति के प्रति गहरा लगाव और नैसर्गिक परिवेश को चित्रित करता है, वहीं प्रेम की अनुभूति, पारिवारिक मर्मस्पर्शिता, अन्तर्वेदना और युवा पीढ़ी की कुंठा से लबरेज है। वैचारिक प्रतिबद्धता और कलात्मक से परे कवि जीवन की समग्रता में माँ, प्रेयसी, ईश्वर, बचपन, यौवन, इंसानियत, मानवीय मूल्यों, करुणा आदि को शामिल करता है।

कार्यक्रम में युवा कवि श्री रामलाल सराठे, ‘रश्मि’ ने कहा कि कवि लम्बी कविताओं और अनावश्यक शब्दों के प्रयोग से बचा है तथा रचनाओं के पात्र काल्पनिक न होकर स्वाभाविक हैं। युवा कवि श्री के0के0मिश्रा ‘कायर’ ने कहा कि ‘माँ’ कविता में माँ-बेटा-बहू का चित्रण इस प्रकार बना है कि रात भर शमा सिर्फ इसलिए जलती रही कि दिन के उजाले में चलने वाला मुसाफिर रात के अंधेरे में कहीं भटक न जाये, इसलिए निशा से लेकर उषा को सौंपने का उपक्रम करती है माँ। अपनी सास से पति को प्राप्त का उसकी प्रतिकृति को अपनी बहू को सौंपते वक्त हथेली पर गिरा गर्म आँसू सारी जिन्दगी का निचोड़ होता है। युवा कवि श्री राजेन्द्र चैबे ने कहा कि कवि ने जैसा सोचा, वैसा ही हर स्तर के लोगों पर लिखा है। विचारों को सहजता और सरलता से व्यक्त कर कवि ने कविताओं को ग्राह्य बना दिया है। युवा कवि श्री राजेन्द्र यादव ने कहा कि कविताओं में कवि की अभिव्यक्ति, दीवानगी, कल्पना की उड़ान अच्छी है तथा जमीनी सच्चाई का अनुपम उदाहरण है। परी की तुलना माँ से करना कवि की बुद्धि का परिचायक है तथा ‘ताले’ कविता दोहरे मानवीय चरित्र को उजागर करती है। युवा कवि श्री दिनेश परिहार ने कहा कि संग्रह के ईश्वर खण्ड की कवितायें विशेषकर ‘भिखमंगों का ईश्वर’ अच्छी लगी। युवा कवि श्री सुदेश मेहरोलिया ने कहा कि कवि ने घटनाओं को सहजता और सरलता से प्रस्तुत किया है। इन कविताओं में नयापन नहीं होने पर भी कवितायें पठनीय हैं। युवा कवि श्री श्रीकान्तशरण डेहरिया ने कहा कि संग्रह के ‘प्रेयसी’ खण्ड की ‘प्रेम’ कविता अच्छी है, जिसमें कवि प्रेम के माध्यम समाज के सभी लोगों को एक दूसरे से बांधना चाहता है। इसी तरह ‘तितलियाँ’ कविता भी अच्छी और सुन्दर बन पड़ी है। कार्यक्रम में श्री विशाल शुक्ल ‘ओम्’ और अन्य साहित्यकार व श्रोतागण उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन एवं आभार प्रदर्शन पाठक मंच के संयोजक एवं युवा साहित्यकार श्री ओम प्रकाश ‘नयन’ ने किया।

संपर्क सूत्र - गोवर्धन यादव(वरिष्ठ कथाकार/समीक्षक)
संयोजक-राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, छिन्दवाड़ा
103, कावेरी नगर, छिंदवाड़ा (म0प्र0)-480001

Saturday, April 25, 2009

कविता


तीन चौपदे


- आचार्य संजीव 'सलिल'



दिल को दिल ने जब पुकारा, दिल तड़प कर रह गया.

दिल को दिल का था सहारा, दिल न कुछ कह कह गया.

दिल ने दिल पर रखा पत्थर, दिल से आँखे फेर लीं-

दिल ने दिल से दिल लगाया, दिल्लगी दिल सह गया.
***

कर न बेगाना मुझे तू, रुसवा ख़ुद हो जाएगा.

जिस्म में से जाँ गयी तो बाकी क्या रह जाएगा?

बन समंदर तभी तो दुनिया को कुछ दे पायेगा-

पत्थरों पर 'सलिल' गिरकर व्यर्थ ही बह जाएगा.
***

कौन किसी का है दुनिया में. आना-जाना खाली हाथ.

इस दरवाजे पर मय्यत है उस दरवाजे पर बारात.

सुख-दुःख धूप-छाँव दोनों में साज और सुर मौन न हो-

दिल से दिल तक जो जा पाये 'सलिल' वही सच्चे नगमात.

Thursday, April 23, 2009

कविता

प्यार की कुण्डली

- संजीव सलिल

भुला न पाता प्यार को, कभी कोई इंसान.

पाकर-देकर प्यार सब जग बनता रस-खान

जग बनता रस-खान, नेह-नर्मदा नाता.

बन अपूर्ण से पूर्ण, नया संसार बसाता.

नित्य 'सलिल' कविराय, प्यार का ही गुण गाता.

खुद को जाये भूल, प्यार को भुला न पाता.

Monday, April 20, 2009

चार कविताएँ


मंज़िल है पास मगर...

- शेर्फराज़ नवाज़, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ग्लामरगोन, वेल्स, यू.के.

मंज़िल है पास मगर,

नज़र से दूर है राह मेरी,

सारी खुशी मिले तुझे,

मुझे खुशी न मिले सही,

यही है तमन्ना मेरे सनम,

जनम भर साथ रहे तेरा,

मेरा कौन है सहारा,

हमारा बस तू ही है किनारा ।

***

रहता तू है करीब मेरे,

खफा हूँ मैं, नसीब से मेरे,

दोस्तों की कमी न थी मगर,

कैसे मैं करूँ तुझे ख़बर,

सता रही है सूनापन मुझे,

अकेलापन है कभी न सुलझे,

अपने आप से हर पल हूँ मैं उलझे ।

गुज़ारिश है मेरी ये खुदा से,

बात करे भला कोई प्यार से ।

***

तुमने सोचा था कि हम समझ लेंगे सभी,

आज न हुआ तो यह होगा फिर कभी,

नैया भी हुआ तो आएँगे लौटकरके यहीं,

कैसे यह जान लिया कि कोई चारा नहीं,

हमारे साथ देगा विकी भी,

डराए है हमें प्लागियरिस्म अभी,

हम तो फसेंगे ही कभी न कभी ।

***

हमारा नाम है शेरफराज़,

शायरी से हुए है हम नवाज़,

कोई जो सुने तो कहे (शाबाश) शबाज़,

सैर पे निकले है सर पे लेके (ताज) ताज़,

शेर देखे तो होजाए बेमिजाज़,

प्यार से लोग बुलाते हैं हमें,

शेर-शायरफ़राज़ ।

***

Sunday, April 19, 2009

चिटठा-लेखन तथा अंतर्जाल पत्रकारिता : द्विदिवसीय कार्यशाला


'व्यष्टि से समष्टि तक वही पहुंचे जो सर्व हितकारी हो'-- संजीव सलिल



जबलपुर, १९ अप्रैल २००९. ''चिटठा लेखन वैयक्तिक अनुभूतियों की सार्वजानिक अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र नहीं है, यह निजता के पिंजरे में क़ैद सत्य को व्यष्टि से समष्टि तक पहुँचने का उपक्रम भी है. एक से अनेक तक वही जाने योग्य है जो 'सत्य-शिव-सुन्दर' हो, जिसे पाकर 'सत-चित-आनंद' की प्रतीति हो. हमारी दैनन्दिनी अंतर्मन की व्यथा के प्रगटीकरण के लिए उपयुक्त थी चूंकि उसमें अभिव्यक्त कथ्य और तथ्य तब तक गुप्त रहते थे जब तक लेखक चाहे किन्तु चिटठा में लिखा गया हर कथ्य तत्काल सार्वजानिक हो जाता है, इसलिए यहाँ तथ्य, भाषा, शैली तथा उससे उत्पन्न प्रभावों के प्रति सचेत रहना अनिवार्य है. अंतर्जाल ने वस्तुतः सकल विश्व को विश्वैक नीडं तथा वसुधैव कुटुम्बकम की वैदिक अवधारणा के अनुरूप 'ग्लोबल विलेज' बना दिया है. इन माध्यमों से लगी चिंगारी क्षण मात्र में महाज्वाला बन सकती है, यह विदित हो तो इनसे जुड़ने के अस्त ही एक उत्तरदायित्व का बोध होगा. जन-मन-रंजन करने के समर्थ माध्यम होने पर भी इन्हें केवल मनोविनोद तक सीमित मत मानिये. ये दोनों माध्यम जन जागरण. चेतना विस्तार, जन समर्थन, जन आन्दोलन, समस्या निवारण, वैचारिक क्रांति तथा पुनर्निर्माण के सशक्त माध्यम तथा वाहक भी हैं.'' उक्त विचार स्वामी विवेकानंद आदर्श महाविद्यालय, मदन महल, जबलपुर में आयोजित द्विदिवसीय कार्यशाला के द्वितीय दिवस प्रशिक्षुओं को संबोधित करते हुए मुख्य वक्ता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा ने व्यक्त किये. विशेष वक्ता श्री विवेकरंजन श्रीवास्तव 'विनम्र' ने अपने ५ वर्षों के चिटठा-लेखन के अनुभव सुनाते हुए प्रशिक्षुओं को इस विधा के विविध पहलुओं की जानकारी दी. उक्त दोनों वक्ताओं ने अंतरजाल पर स्थापित विविध पत्र-पत्रिकाओं तथा चिट्ठों का परिचय देते हुए उपस्थितों को उनके वैशिष्ट्य की जानकारी दी. संगणक पर ई मेल आई डी बनाने, चिटठा खोलने, प्रविष्टि करने, चित्र तथा ध्वनि आदि जोड़ने के सम्बन्ध में दिव्य नर्मदा के तकनीकी प्रबंधक श्री मंवंतर वर्मा 'मनु' ने प्रायोगिक जानकारी दी. चिटठा लेखन की कला, आवश्यकता, उपादेयता, प्रभाव, तकनीक, लोकप्रियता, निर्माण विधि, सावधानियां, संभावित हानियाँ, क्षति से बचने के उपाय व् सावधानियां, सामग्री प्रस्तुतीकरण, सामग्री चयन, स्थापित मूल्यों में परिवर्तन की सम्भावना तथा अंतर्विरोधों, अश्लील व अशालीन चिटठा लेखन और विवादों आदि विविध पहलुओं पर प्रशिक्षुओं ने प्रश्न किया जिनके सम्यक समाधान विद्वान् वक्ताओं ने प्रस्तुत किये. चिटठा लेखन के आर्थिक पक्ष को जानने तथा इसे कैरिअर के रूप में अपनाने की सम्भावना के प्रति युवा छात्रों ने विशेष रूचि दिखाई. संसथान के संचालक श्री प्रशांत कौरव ने अतिथियों का परिचय करने के साथ-साथ कार्यशाला के उद्देश्यों तथा लक्ष्यों की चर्चा करते हुए चिटठा लेखन के मनोवैज्ञानिक पहलू का उल्लेख करते हुए इसे व्यक्तित्व विकास का माध्यम निरूपित किया. सुश्री वीणा रजक ने कार्य शाला की व्यवस्थाओं में विशेष सहयोग दिया तथा चिटठा लेखन में महिलाओं के योगदान की सम्भावना पर विचार व्यक्त करते हुए इसे वरदान निरुपित किया. द्विदिवसीय कार्य शाला का समापन डॉ. मदन पटेल द्वारा आभार तथा धन्यवाद ज्ञापन से हुआ. इस द्विदिवसीय कार्यशाला में शताधिक प्रशिक्षुओं तथा आम जनों ने चिटठा-लेखन के प्रति रूचि प्रर्दशित करते हुए मार्गदर्शन प्राप्त किया.


Friday, April 17, 2009

गीत

गीतिका

- आचार्य संजीव 'सलिल'

'सलिल' को दे दर्द अपने, चैन से सो जाइए.

नर्मदा है नेह की, फसलें यहाँ बो जाइए.

चंद्रमा में चांदनी भी और धब्बे-दाग भी.

चन्दनी अनुभूतियों से पीर सब धो जाइए.

होश में जब तक रहे, मैं-तुम न हम हो पाए थे.

भुला दुनिया मस्त हो, मस्ती में खुद खो जाइए.

खुदा बनने था चला, इंसा न बन पाया 'सलिल'.

खुदाया अब आप ही, इंसान बन दिखलाइए.

एक उँगली उठाता है जब भी गैरों पर; सलिल'

तीन उँगली चीखती हैं, खुद सुधर कर आइए.
***

Wednesday, April 15, 2009

कविता

आदत
- श्यामल सुमन

मेरी यही इबादत है।
सच कहने की आदत है।।

मुश्किल होता सच सहना तो।
कहते इसे बगावत है।।

बिना बुलाये घर आ जाते।
कितनी बड़ी इनायत है।

कभी जरूरत पर ना आते।
इसकी मुझे शिकायत है।।

मीठी बातों में भरमाना।
इनकी यही शराफत है।।

दर्पण दिखलाया तो कहते।
देखो किया शरारत है।।

झूठ कभी दर्पण न बोले।
बहुत बड़ी ये आफत है।।

ऐसा सच स्वीकार किया तो।
मेरे दिल में राहत है।।

रोज विचारों से टकराकर।
झुका है जो भी आहत है।।

सत्य बने आभूषण जग का।
यही सुमन की चाहत है।।

Tuesday, April 14, 2009

भारत रत्न बाबा साहेब



भारत रत्न बाबा साहेब



- डॉ. एस. बशीर, चेन्नै



भारत संविधान के प्रणेता
धर्म-निरपेक्ष व लोक तंत्रात्मक
इस विशाल गण राज्य के श्रद्धेय
हे भारत रत्न
बाबा साहेब डॉ. बीमाराव अंबेडकर महान
तुमने रोशन किया भारत माता की शान
ज्ञान का दीप, जनता को बना वरदान
हर युग में तुम्हारा हो जय जय गान
पनीत जन्म-तिथि पर आज
अर्पित करते हैं हम
शत शत श्रद्धा-सुमान ।

तमिल एवं मलयालम नव वर्ष की शुभकामनाएँ

तमिल नव वर्ष चित्रै तिरुनाल एवं
मलयालम नव वर्ष विषु की हार्दिक शुभकामनाएँ



Thursday, April 9, 2009

कविता

कुण्डलिनी


- आचार्य संजीव 'सलिल', संपादक, दिव्य नर्मदा

करुणा संवेदन बिना, नहीं काव्य में तंत ।
करुणा रस जिस ह्रदय में वह हो जाता संत ।।
वह हो जाता संत, न कोई पीर परायी ।
आँसू सबके पोंछ, लगे सार्थकता पाई ।।
कंकर में शंकर दिखते, होता मन-मंथन ।
'सलिल' व्यर्थ है गीत, बिना करुणा संवेदन ।।

***

सदा समय पर जो करे, काम और आराम ।
मिले सफलता उसी को, वह पाता धन-नाम ।।
वह पाता धन-नाम, न थक कर सो जाता है ।
और नहीं पा हार, बाद में पछताता है ।।
कहे 'सलिल' कविराय, न खोना बच्चों अवसर ।
आलस छोडो, करो काम सब सदा समय पर ।।

***

कविता होती है 'सलिल', जब हो मन में पीर ।
करे पीर को सहन तू, मन में धरकर धीर ।।
मन में धरकर धीर, सभी को हिम्मत दे तू ।
तूफानों में डगमग नैया, अपनी खे तू ।।
विजयी वह जिसकी न कभी हिम्मत खोती है ।
ज्यों की त्यों चादर हो तो कविता होती है ।।

***

Tuesday, April 7, 2009

महावीर जयंती की शुभकामनाओं सहित..


“जियो और जीने दो”


- डॉ. एस. बशीर, चेन्नै ।


“जियो और जीने दो”
कथन से विश्व विख्यात्
क्रांतिकारी महापुरुष श्री महावीर जयंती पर
करें हम स्मरण उनके जीवन का
करें आचरण उनके विचारों का
साधना, तपस्या और अहिंसा के बल पर
सत्य का किया साक्षात्कार भगवान महावीर ने
करें हम सब इसका प्रचार-प्रसार
मानवता के दीप जले हमेशा प्रज्ज्वल
आज जब हिंसा का तांडव नृत्य सर्वत्र व्याप्त है,
क्यों ने करें हम सबको सचेत
“जियो और जीने दो” – महामंत्र को अपनाएं
हिंसा को छोड़ अहिंसा को अपनाएँ
विश्व जन समुदाय को सचेत करें हम-
“जो विश्व को जीता
वह सिकंदर
जो खुद को जीता
वह मस्त खलंदर ।“
महावीर के संदेश को
करें हम आत्मसात ।
बने हम आत्म-संयमी
जग में पनपे ममता-मानवता ।

Sunday, April 5, 2009

कविता

मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का, मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?


- जय नारायण त्रिपाठी


मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का,
मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?
वो कूकेगी आम्र वृक्ष की शाखाओं पर,
मृदु किसलयों की ओट में
खुद को छिपलाकर
क्या तनिक उसे ये भान नहीं,
एक दिन वो हरित डाल भी सूखेगी ?
मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का,
मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?
मेरे शूलों का स्नेह त्याग,
औ' बैठ वहां, छेड़ती विहग राग
मुझे दर्प में ठुकराया पर,
एक दिन ये स्वर लहरी भी तो रूखेगी !
मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का,
मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?
फल न दे पाऊ मैं भले,
मगर जलने को तन तो दे सकता हूँ
प्रीत की खातिर मुझे बचाने तब,
क्या बार बार वो फूकेगी ?
मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का,
मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?

Thursday, April 2, 2009

श्री राम नवमी की शुभकामनाओं सहित .... श्री राम रक्षा स्तोत्र (संस्कृत मूल तथा हिंदी अनुवाद)



श्रीरामरक्षास्तोत्र (संस्कृत मूल)
.. ॐ श्रीगणेशाय नमः ..

अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमंत्रस्य . बुधकौशिक ऋषिः .
श्रीसीतारामचंद्रो देवता . अनुष्टुप् छंदः .
सीता शक्तिः . श्रीमद् हनुमान कीलकम् .
श्रीरामचंद्रप्रीत्यर्थे रामरक्षास्तोत्रजपे विनियोगः ..
.. अथ ध्यानम् ..
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थम् .
पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् .
वामांकारूढ सीतामुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभम् .
नानालंकारदीप्तं दधतमुरुजटामंडनं रामचंद्रम् ..
.. इति ध्यानम् ..
चरितं रघुनाथस्य शतकोटि प्रविस्तरम् .
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् .. १..
ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम् .
जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमंडितम् .. २..
सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तंचरान्तकम् .
स्वलीलया जगत्रातुं आविर्भूतं अजं विभुम् .. ३..
रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः पापघ्नीं सर्वकामदाम् .
शिरोमे राघवः पातु भालं दशरथात्मजः .. ४..
कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रियश्रुती .
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सलः .. ५..
जिव्हां विद्यानिधिः पातु कंठं भरतवंदितः .
स्कंधौ दिव्यायुधः पातु भुजौ भग्नेशकार्मुकः .. ६..
करौ सीतापतिः पातु हृदयं जामदग्न्यजित् .
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रयः .. ७..
सुग्रीवेशः कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभुः .
ऊरू रघूत्तमः पातु रक्षःकुलविनाशकृत् .. ८..
जानुनी सेतुकृत्पातु जंघे दशमुखान्तकः .
पादौ बिभीषणश्रीदः पातु रामोखिलं वपुः .. ९..
एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् .
स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् .. १०..
पातालभूतलव्योमचारिणश्छद्मचारिणः .
न द्रष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिः .. ११..
रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन् .
नरो न लिप्यते पापैः भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति .. १२..
जगजैत्रैकमंत्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम् .
यः कंठे धारयेत्तस्य करस्थाः सर्वसिद्धयः .. १३..
वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत् .
अव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमंगलम् .. १४..
आदिष्टवान् यथा स्वप्ने रामरक्षांमिमां हरः .
तथा लिखितवान् प्रातः प्रभुद्धो बुधकौशिकः .. १५..
आरामः कल्पवृक्षाणां विरामः सकलापदाम् .
अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान् स नः प्रभुः .. १६..
तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ .
पुंडरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ .. १७..
फलमूलाशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ .
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ .. १८..
शरण्यौ सर्वसत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम् .
रक्षः कुलनिहंतारौ त्रायेतां नो रघूत्तमौ .. १९..
आत्तसज्जधनुषाविषुस्पृशावक्षयाशुगनिषंगसंगिनौ .
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम् .. २०..
सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा .
गच्छन्मनोरथोस्माकं रामः पातु सलक्ष्मणः .. २१..
रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली .
काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौसल्येयो रघुत्तमः .. २२..
वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः पुराणपुरुषोत्तमः .
जानकीवल्लभः श्रीमान् अप्रमेय पराक्रमः .. २३..
इत्येतानि जपन्नित्यं मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः .
अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशयः .. २४..
रामं दुर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम् .
स्तुवंति नामभिर्दिव्यैः न ते संसारिणो नरः .. २५..
रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम् .
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् .
राजेंद्रं सत्यसंधं दशरथतनयं श्यामलं शांतमूर्तिम् .
वंदे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम् .. २६..
रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे .
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः .. २७..
श्रीराम राम रघुनंदन राम राम .
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम .
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम .
श्रीराम राम शरणं भव राम राम .. २८..
श्रीरामचंद्रचरणौ मनसा स्मरामि .
श्रीरामचंद्रचरणौ वचसा गृणामि .
श्रीरामचंद्रचरणौ शिरसा नमामि .
श्रीरामचंद्रचरणौ शरणं प्रपद्ये .. २९..
माता रामो मत्पिता रामचंद्रः .
स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्रः .
सर्वस्वं मे रामचंद्रो दयालुः .
नान्यं जाने नैव जाने न जाने .. ३०..
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा .
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वंदे रघुनंदनम् .. ३१..
लोकाभिरामं रणरंगधीरम् .
राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् .
कारुण्यरूपं करुणाकरं तम् .
श्रीरामचंद्रम् शरणं प्रपद्ये .. ३२..
मनोजवं मारुततुल्यवेगम् .
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् .
वातात्मजं वानरयूथमुख्यम् .
श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये .. ३३..
कूजंतं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम् .
आरुह्य कविताशाखां वंदे वाल्मीकिकोकिलम् .. ३४..
आपदां अपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम् .
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् .. ३५..
भर्जनं भवबीजानां अर्जनं सुखसम्पदाम् .
तर्जनं यमदूतानां राम रामेति गर्जनम् .. ३६..
रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे .
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः .
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोस्म्यहम् .
रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर .. ३७..
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे .
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने .. ३८..
इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम् ..
.. श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु ..


हिंदी अनुवाद - आचार्य संजीव सलिल




श्री राम रक्षा स्तोत्र

विनियोग

श्री गणेश-विघ्नेश्वर, रिद्धि-सिद्धि के नाथ .
चित्र गुप्त लख चित्त में, नमन करुँ नत माथ.
ऋषि बुधकौशिक रचित यह, रामरक्षास्तोत्र.
दोहा रच गाये सलिल, कायथ कश्यप गोत्र.
कीलक हनुमत, शक्ति सिय, देव सिया-श्री राम.
जाप और विनियोग यह, स्वीकारें अभिराम.

ध्यान

दीर्घबाहु पद्मासनी, हों धनु-धारि प्रसन्न.
कमलाक्षी पीताम्बरी, है यह भक्त प्रपन्न.
नलिननयन वामा सिया, अद्भुत रूप-सिंगार.
जटाधरी नीलाभ प्रभु, ध्याऊँ हो बलिहार.

श्री गणेश-विघ्नेश्वर, रिद्धि-सिद्धि के नाथ .
चित्र गुप्त लख चित्त में, नमन करुँ नत माथ.
ऋषि बुधकौशिक रचित यह, रामरक्षास्तोत्र.
दोहा रच गाये सलिल, कायथ कश्यप गोत्र.
कीलक हनुमत, शक्ति सिय, देव सिया-श्री राम.
जाप और विनियोग यह, स्वीकारें अभिराम.

ध्यान
दीर्घबाहु पद्मासनी, हों धनु-धारि प्रसन्न.
कमलाक्षी पीताम्बरी, है यह भक्त प्रपन्न.
नलिननयन वामा सिया, अद्भुत रूप-सिंगार.
जटाधरी नीलाभ प्रभु, ध्याऊँ हो बलिहार.

श्री रघुनाथ-चरित्र का, कोटि-कोटि विस्तार.
एक-एक अक्षर हरे, पातक- हो उद्धार. १.
नीलाम्बुज सम श्याम छवि, पुलिनचक्षु का ध्यान.
करुँ जानकी-लखन सह, जटाधारी का गान.२
खड्ग बाण तूणीर धनु, ले दानव संहार.
करने भू-प्रगटे प्रभु, निज लीला विस्तार. ३
स्तोत्र-पाठ ले पाप हर, करे कामना पूर्ण.
राघव-दशरथसुत रखें, शीश-भाल सम्पूर्ण. ४
कौशल्या-सुत नयन रखें, विश्वामित्र-प्रिय कान.
मख-रक्षक नासा लखें, आनन् लखन-निधान. ५
विद्या-निधि रक्षे जिव्हा, कंठ भरत-अग्रज.
स्कंध रखें दिव्यायुधी, शिव-धनु-भंजक भुज. ६
कर रक्षे सीतेश-प्रभु, परशुराम-जयी उर,
जामवंत-पति नाभि को, खर-विध्वंसी उदर. ७
अस्थि-संधि हनुमत प्रभु, कटि- सुग्रीव-सुनाथ.
दनुजान्तक रक्षे उरू, राघव करुणा-नाथ. ८
दशमुख-हन्ता जांघ को, घुटना पुल-रचनेश.
विभीषण-श्री-दाता पद, तन रक्षे अवधेश. ९
राम-भक्ति संपन्न यह, स्तोत्र पढ़े जो नित्य.
आयु, पुत्र, सुख, जय, विनय, पाए खुशी अनित्य.१०
वसुधा नभ पाताल में, विचरें छलिया मूर्त.
राम-नाम-बलवान को, छल न सकें वे धूर्त. ११
रामचंद्र, रामभद्र, राम-राम जप राम.
पाप-मुक्त हो, भोग सुख, गहे मुक्ति-प्रभु-धाम. १२
रामनाम रक्षित कवच, विजय-प्रदाता यंत्र.
सर्व सिद्धियाँ हाथ में, है मुखाग्र यदि मन्त्र.१३
पविपंजर पवन कवच, जो कर लेता याद.
आज्ञा उसकी हो अटल, शुभ-जय मिले प्रसाद.१४
शिवादेश पा स्वप्न में, रच राम-रक्षा स्तोत्र.
बुधकौशिक ऋषि ने रचा, बालारुण को न्योत. १५
कल्प वृक्ष, श्री राम हैं, विपद-विनाशक राम.
सुन्दरतम त्रैलोक्य में, कृपासिंधु बलधाम. १६
रूपवान, सुकुमार, युव, महाबली सीतेंद्र.
मृगछाला धारण किये, जलजनयन सलिलेंद्र. १७.
राम-लखन, दशरथ-तनय, भ्राता बल-आगार.
शाकाहारी, तपस्वी, ब्रम्हचर्य-श्रृंगार. १८
सकल श्रृष्टि को दें शरण, श्रेष्ठ धनुर्धर राम.
उत्तम रघु रक्षा करें, दैत्यान्तक श्री राम. १९
धनुष-बाण सोहे सदा, अक्षय शर-तूणीर.
मार्ग दिखा रक्षा करें, रामानुज-रघुवीर. २०
राम-लक्ष्मण हों सदय, करें मनोरथ पूर्ण.
खड्ग, कवच, शर,, चाप लें, अरि-दल के दें चूर्ण. २१
रामानुज-अनुचर बली, राम दाशरथ वीर.
काकुत्स्थ कोसल-कुँवर, उत्तम रघु, मतिधीर. २२
सीता-वल्लभ श्रीवान, पुरुषोतम, सर्वेश.
अतुलनीय पराक्रमी, वेद-वैद्य यज्ञेश. २३
प्रभु-नामों का जप करे, नित श्रद्धा के साथ.
अश्वमेघ मख-फल मिले, उसको दोनों हाथ.२४
पद्मनयन, पीताम्बरी, दूर्वा-दलवत श्याम.
नाम सुमिर ले 'सलिल' नित, हो भव-पार सुधाम. २५
गुणसागर, सौमित्राग्रज, भूसुतेश श्रीराम.
दयासिन्धु काकुत्स्थ हैं, भूसुर-प्रिय निष्काम. २६ क
अवधराज-सुत, शांति-प्रिय, सत्य-सिन्धु बल-धाम.
दशमुख-रिपु, रघुकुल-तिलक, जनप्रिय राघव राम. २६ख
रामचंद्र, रामभद्र, रम्य रमापति राम.
रघुवंशज कैकेई-सुत, सिय-प्रिय अगिन प्रणाम. २७
रघुकुलनंदन राम प्रभु, भरताग्रज श्री राम.
समर-जयी, रण-दक्ष दें, चरण-शरण श्री धाम.२८
मन कर प्रभु-पद स्मरण, वाचा ले प्रभु-नाम.
शीश विनत पद-पद्म में, चरण-शरण दें राम.२९
मात-पिता श्री राम हैं, सखा-सुस्वामी राम.
रामचंद्र सर्वस्व मम, अन्य न जानूं नाम. ३०
लखन सुशोभित दाहिने, जनकनंदिनी वाम.
सम्मुख हनुमत पवनसुत, शतवंदन श्री राम.३१
जन-मन-प्रिय, रघुवीर प्रभु, रघुकुलनायक राम.
नयनाम्बुज करुणा-समुद, करुनाकर श्री राम. ३२
मन सम चंचल पवनवत, वेगवान-गतिमान.
इन्द्रियजित कपिश्रेष्ठ दें, चरण-शरण हनुमान. ३३
काव्य-शास्त्र आसीन हो, कूज रहे प्रभु-नाम.
वाल्मीकि-पिक शत नमन, जपें प्राण-मन राम. ३४
हरते हर आपद-विपद, दें सम्पति, सुख-धाम.
जन-मन-रंजक राम प्रभु, हे अभिराम प्रणाम. ३५
राम-नाम-जप गर्जना, दे सुख-सम्पति मीत.
हों विनष्ट भव-बीज सब, कालदूत भयभीत. ३६
दैत्य-विनाशक, राजमणि, वंदन राम रमेश.
जयदाता शत्रुघ्नप्रिय, करिए जयी हमेश. ३७ क
श्रेष्ठ न आश्रय राम से, 'सलिल' राम का दास.
राम-चरण-मन मग्न हो, भव-तारण की आस. ३७ ख
विष्णुसहस्त्रनाम सम, पावन है प्रभु-नाम
रमे राम के नाम में, सलिल-साधना राम. ३८
मुनि बुधकौशिक ने रचा, श्री रामरक्षास्तोत्र..
सिया-राम-चरणार्पित, भव-भक्तिमय ज्योत.
'शांति-राज'-हित यंत्र है, श्री रामरक्षास्तोत्र.३९
आशा होती पूर्ण हर, प्रभु हों सत्य सहाय.
तुहिन श्वास हो नर्मदा, मन्वंतर गुण गाय.. ४०
राम-कथा मंदाकिनी, रामकृपा राजीव.
राम-नाम जप दे दरश, राघव करुणासींव. ४१


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