Tuesday, June 1, 2010

दोहा सलिला:



संजीव वर्मा 'सलिल'

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जितने भी दिन हम जियें, जियें चैन से ईश.
उस दिन के पहले उठा, जिस दिन नत हो शीश..
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कान अन्य के आ सकें, तब तक देना साँस.
काम न आयें किसी के, तो हो जीवन फाँस..
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वह सहस्त्र वर्षों जियें, जो हरता पर-पीर.
उसका जीवन ख़त्म हो, दे सबको पीर..
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उसका कभी न अंत हो, जिसको कहते आत्म.
मिटा मात्र शरीर है, आत्म बने परमात्म..
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सदियाँ हम मानें जिसे, वह विधि का पल मात्र.
पानी के बुलबुले सा, है मानव का गात्र..
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ज्यों की त्यों चादर धरे, जो न मृत्यु छी पाए.
ढाई आखर पढ़े बिन, साँस न आए-जाए
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