Friday, May 20, 2011

आलेख - आज का समाज और कबीर




आज का समाज और कबीर


- कुमार वरूण, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी



21वीं शताब्दी के दूसरे दशक में आज हमारे सामने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व की अनेक समस्याएँ अपने समाधान के लिए मुँह बाए खड़ी हैं। लेकिन ऐसे चुनौती भरे वातावरण में मंदिर और मस्जिद विवाद के छोटे से मसले ने सांप्रदायिक कट्टरपंथ और धार्मिक तत्ववाद का सहारा लेकर देश को एक ऐसे विस्फोट पर खड़ा कर दिया है, जहाँ से आगे राह नहीं मिल पा रही है। सांप्रदायिक विद्वेष की इस गंभीरता को आज से लगभग छ: सौ वर्ष पहले कबीर ने रेखांकित किया था-

अरे इन दोउन राह न पाई
हिन्दु की हिन्दुवाई देखी तुरकन की तुरकाई
कहें कबीर सुनो भाई साधो, कौन राह जाई॥



आज की विचारधारात्मक उठापटक और सामाजिक वितंडावाद के बीच अनेक बार कबीर की बानियों की सार्थकता बतायी जाती है। आज का समय कबीर के सच होने का है, 'न हिन्दू न मुसलमान' कहकर कबीर ने दोनों संप्रदायों में व्याप्त धर्मान्धता और कठमुल्लावाद की धज्जियां उड़ाई। हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कहें तो यह 'अस्वीकार का साहस' है, जो अपने आप में सत्य की परख है। कबीर ने सीधी चोट करने वाली बानियों के द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन की जरूरतों का एहसास कराया। उनकी उत्तोजक प्रतिवाद-भावना से मध्ययुग में धर्म की एक प्रगतिशील भूमिका उभकर सामने आती है। जो कि वर्तमान समय के समाज के लिए पूर्व पीठिका तैयार करती है।

कबीर का विद्रोह एक ओर प्रगतिशीलता का चिन्ह है, तो दूसरी ओर व्यक्ति-वैचित्र्य और निषेधमूलक नकारात्मक दृष्टिकोण का भी। वे भीड़ के कायल नहीं- 'सिंह के लहड़े नही हंसन की नहिं पांति। लालन की नाहिं बोरियां साधु न चलै जमात॥'' वे भ्रष्ट समाज को भस्म कर देने हेतु एकाकी हैं। उनके सुधार में ध्वंस का आवेग है, पर जो शोमन है, जो शुभ है उसका संकल्प भी। इस सामाजिक क्रांति के दौरान उन्हें यदा-कदा कुंठा, हताशा एवं कुढ़न का अनुभव भी होता है। एक पद में अपना क्षोभ व्यक्त करते हुए वे रहते हैं-

संतो देख्यों जग बौराना।
सांच कहौ तो मारन धावै, झूंठ कहौ पतियाना।



कबीर की भक्ति में सभी मनुष्यों के लिए समानता का भाव है। इसमें किसी भी बाह्याचार या धार्मिक कर्मकाण्ड को स्थान नहीं दिया गया है। कबीर अपने आत्मगत ईश्वर में पीड़ित एवं वंचित मनुष्य की छाया देखते हैं। वे ऐसे मनुष्य की हिताकांक्षा लेकर सुल्तान के दरबार तक पहुँचाना चाहते हैं, लेकिन वह भी अपनी मजलिस में दरबारी से घिरा रता है-


तहां मुझ गरीब की को गुठरावै।
मजलिस दूरि महल को पावै॥

कबीर की इन पंक्तियों में मध्ययुगीन शासन वर्ग का सच उजागर होता है। इतिहासकार इरफान हबीब ने दिल्ली सल्तनत के अधीन उत्तार भारत की सामाजिक स्थिति का वर्णन इन शब्दों में किया है ''किसान जैसे अपने घर के भी मालिक नहीं थे और उनकी दशा दासों से बेहतर न थी। सुल्तान ने भूमि-कर अधिकारियों को किसानों से निर्ममतापूर्वक कर वसूल करने के कठोर आदेश दे रखे थे ताकि वे कृषि-उत्पादन को तुरन्त बेचने पर विवश हो जाएं (कैंब्रिज इकॉम्नोमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया खण्ड-1, पृ0 54)
कबीर की रचनाएँ समाज सुधार की प्रेरणा देती है। उनमें सर्वधर्म समन्वय का मूलमंत्र छिपा है, बावजूद इसके कबीर सर्वधर्म समन्वयकारी न तो उस अर्थ में समाज सुधारक जिन अर्थों में लोग उन्हें इन कटघरों में बैठाना चाहते हैं। सर्वधर्म समन्वय की जिन बुनियादी शर्तों की आवश्यकता हो सकती है, वे कबीर में मौजूद हैं। किन्तु वर्तमान समय में सर्वधर्म समन्वय जो अर्थ लिया जाता है इससे उनका मत नितांत भिन्न है। निरर्थक आचार एवं रूढ़ियों से उन्हें बेहद चिढ़ थी, चाहे किसी अवतारी पुरूष या पैगम्बर द्वारा ही प्रवर्तित क्यों न हो। कबीर अपनी राह पर चलाते थे। उनकी राह न हिन्दू की थी, न मुसलमान की। यथा


हिन्दू मूये राम हि, मुसलमान खुदाइ।
कहै कबीर सो जीवता, दुइ में कदे न जाई॥''



कबीर की रचनाओं में जो सच है, वह उनके जीवन और समाज का ही सच है। उनकी अनुभूतियों में व्यक्ति की निजता के साथ ही काल का तीव्र बोध है, जिसके कारण वे आधुनिक बोध के निकट दिखाई पड़ते हैं। वे तुलसी से प्राचीन होते हुए भी आधुनिक और प्रगतिशील हैं, क्योंकि उन्होंने अपने ज्ञान के माध्यम से न सिर्फ साधना का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि मनुष्य और मनुष्य के बीच बैर पैदा करने वाली सामाजिक नियमों की धज्जियाँ भी उड़ाई हैं। अकाटय तर्क से युक्त उनके सधे हुए व्यंगों से भारतीय विवेकवाद के विकास का प्रमाण मिलता है। यह अकारण नहीं है कि आज मध्ययुगीन समाज के स्वस्थ इतिहास का शोध कबीर की बानियों के आधार पर किया जा रहा है। उनके अनुभवपूर्ण विचारों की अर्थवान् संगति अब खुलने लगी है।



आज हम एक ऐसे चौराहे पर खड़े हैं जहाँ विचारों और नैतिकता का अंत हो रहा है और पूरी दुनिया भूमंडलीकृत होकर एक बाजार में तब्दील होती जा रही है। ऐसा ''बाजार'' जिसमें अंधेरगर्दी और लूटपाट के सिवा कुछ नहीं है। कबीर इस बाजारवादी स्वरूपों की पहचान कराकर हमें आज का सच का एहसास दिलाने के लिए प्रयासरत हैं -

कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ
जो घर फूंके आपना सो चले हमारे साथ



कथ्य और सांकेतिक व्यंजनाओं के कारण कबीर की बानियां आज भी समाज को समकालीन जीवन में बदले हुए सन्दर्भों में उतनी ही झकझोरती है, जितना मध्यकालीन यथार्थबोध के संदर्भों में। इसीलिए कबीर का साहित्य अतीत के अनेक रचनाकारों का साहित्य की तरह अप्रासंगिक और निष्प्राण साहित्य नहीं है। कबीर का साहित्य हमें हर चुनौती से लड़ने की शक्ति प्रदान करती है।






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