Tuesday, October 11, 2011

मुक्तिका : भजे लछमी मनचली को..

मुक्तिका :


भजे लछमी मनचली को..

संजीव 'सलिल'

*

चाहते हैं सब लला, कोई न चाहे क्यों लली को?

नमक खाते भूलते, रख याद मिसरी की डली को..



गम न कर गर दोस्त कोई नहीं तेरा बन सका तो.

चाह में नेकी नहीं, तू बाँह में पाये छली को..



कौन चाहे शाक-भाजी-फल खिलाना दावतों में

चाहते मदिरा पिलाना, खिलाना मछली तली को..



ज़माने में अब नहीं है कद्र फनकारों की बाकी.

बुलाता बिग बोंस घर में चोर डाकू औ' खली को..



राजमार्गों पर हुए गड्ढे बहुत, गुम सड़क खोजो.

चाहते हैं कदम अब पगडंडियों को या गली को..



वंदना या प्रार्थना के स्वर ज़माने को न भाते.

ऊगता सूरज न देखें, सराहें संध्या ढली को..



'सलिल' सीता को छला रावण ने भी, श्री राम ने भी.

शारदा तज अवध-लंका भजे लछमी मनचली को..



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