Wednesday, April 24, 2013

प्रेमचंद की उपन्यास कला


शोध-आलेख
          
प्रेमचंद की उपन्यास कला

 * जी॰ अखिलांडेश्वरी
      प्रेमचंद ने कहा है "मैं उपन्यास को मानव चरित्र का चित्रमात्र समझता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है"। उपन्यस में प्रमुख रूप से मानव जीवन का ही चित्रण होता है। प्रेमचंद की उपन्यास कला समझने से पूर्व यह समझ लेना आवश्यक है, जैसे कि वे समझते थे, जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जगे, हमें आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शान्ति और गति न पैदा हो , हमारा सौन्दर्य-प्रेम न जागृत हो, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे वह हमारे लिये बेकार है; वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं । इस संबंध में उन्होंने स्पष्टता से घोषित किया है कि मुझे यह कहने में हिचक नहीं है कि मैं और चीजों की तरह कला को उपयोगिता की तुला पर तोलता हूँ । कलाकार अपनी कला में सौन्दर्य की सृष्टि करके परिस्थिति को विकास के उपयोगी बनाता है।
     कथानक उपन्यास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है। कथानक अपनी सीमा में जीवन की समग्रता को अंकित करता है। कथानक में घटनाओं की संयोजना इस कौशल से होती है कि आरंभ से अन्त तक घटनायें बराबर एक दूसरे से निकलती हुई तथा एक सूत्र में बँधी हुई दृष्टिगोचर होती हैं। प्रेमचंद के उपन्यासों के कथानक देखें तो कई बातें स्पष्ट हो जाती हैं। उनके कथानकों का अत्यन्त विस्तृत क्षेत्र होता है जिसमें समग्र मानवीय चेतनाओं के व्यापक आयामों को समेटने का प्रयास किया जाता है। इस प्रक्रिया में वे कला के जिन उपकरणों का आश्रय ग्रहण करते हैं, उनसे पाठकें का पूर्ण तादात्म्य रहता है । एक स्थान पर उन्होंने लिखा है कि कथा को बीच में शुरू करना या इस प्रकार शुरू करना कि जिसमें ड्रामा का चमत्कार पैदा हो जाय, मेरेलिये मुश्किल है"। इस कथन की सत्यता उनके उपन्यासों के कथानक प्रमाणित करते हैं, जिनके आदि, मध्य और अंत तथा घटनाओं की गति विधियाँ स्पष्ट रहती हैं ।  वे कभी तथ्यों को तोड़ते-मरोड़ते नहीं, और बातों को सीधे-सादे ढंग से स्पाष्ट कर देने में विश्वास रखते हैं ।  प्रेमचंद के कथानकों में पग-पग पर उनके सामाजिक दायित्व के निर्वाह की तीव्र भावना मिलती है । उन्होंने कहीं भी वैयक्तिकता को महत्व नहीं दिया है। इसलिए उनके कथानक समाज तथा समकालीन यथार्थ से घनिष्ठ रूप मे संबंध रखते हैं। उनके कथानकों में परिवार से लेकर विशाल राष्ट्र की व्यापक एवं गंभीर समस्यायें रहती हैं। उनके कथानकों में जीवन की विशद व्याख्या और जीवन का विशद चित्र पट रहता है । उन्होंने जीवन की कुरूपता पर भी सुन्दर भवन निर्मित किया है। इस संबंध में उनका आदर्शोन्मुख यथार्थवाद ही उभर आता है। उन्होंने मनोविज्ञान के आधार पर बल दिया है।
     प्रेमचंद ने कला का संबंध जीवन के साथ स्थापित किया । इसलिए उनके कथानकों में हमें एक विशेष युग का पूर्ण चित्र मिल जाता है। उन्होंने वर्ग संघर्ष का चित्रण अवश्य किया है किन्तु उस संघर्ष का पर्यवसान समन्वय की ओर है।
     पात्र एवं चरित्र चित्रण पर विचार करेंगे तो स्पष्ट होता है कि चरित्र चित्रण के संबंध में प्रेमचंद की अपनी धारण थी और उसी के आधार पर वे अपने पात्रों को जीवन के यथार्थ से चुनते थे । उनका विचार था कि उपन्यासों के चरित्रों का चित्रण जितना ही स्पष्ट और गहरा हो, उतना ही पाठकों पर उसका असर होता है।
     प्रेमचंद का चरित्र चित्रण अभिनयात्मक और विश्लेषणात्मक दोनों प्रकार का है। उनके पात्र जातीय (Type) अधिक है और वैयक्तिक कम । वे किसी न किसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं और उस युग की सारी विशेषताएं उन पात्रों में देखी जा सकती हैं।
     कथोपकथन आधुनिक उपन्यास कला का एक महत्व पूर्ण अंग माना जाता है। कथोपकथन जितने छोटे, व्यंग्य पूर्ण और सार्थक होते हैं, उपन्यास की सफलता उतनी ही बढ़ जाती है। प्रेमचंद के उपन्यासों के कथोपकथन पत्रों के शील और स्वभाव अर प्रकाश डालते हैं। उनके कथोपकथनों में संक्षिप्तता अधिकांश रूप में प्राप्त होती है। प्रेमचंद के कथोपकथनों में बड़ी स्वाभाविकता रहती है। वे उनको इस प्रकार पात्रानुकूल प्रस्तुत करते हैं कि वे अधिक यथार्थ लगते हैं। प्रेमाश्रम के प्रारंभ में देहातियों में जो वर्तालाप होता है वह इस बात का प्रमाण है।  देश्काल और वातावरण का चित्रण करने में प्रेमचंद सिद्धहस्त है।  उनके उपन्यासों में उनके समय का युग और समाज यथार्थ ढंग से प्रतिबिम्बित हो उठा है।
     उन्होंने स्थानीयता का पूर्ण ध्यान रखा है और भारतीय लोक परम्पराओं, संस्कृतियों एवं आदर्शों को उनके वास्तविक रूप में चित्रित करने का प्रयास किया है। यही कारण है कि उनके उपन्यासों को पढते समय ऐसा प्रतीत होता है कि हम अपने जीवन का सजीव चित्र अपनी आखों से देख रहे हैं, जिसमें कहीं भी अयथार्थता या कृत्रिमता नहीं है। प्रेमाचन्द की उपन्यास कला की यह एक महत्वपूर्ण सफलता है।
     भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा है । उपन्यास की भाषा रचना की सफलता में प्रमुख हाथ रखती है। भाषा जितनी ही सरल भावाभिव्यंजक एवं बोधगम्य रहती है वह उतनी ही प्रभावशाली होती है। प्रेमचंद के उपन्यास साधारण से साधारण पाठकों तक इसलिए पहुँच सके कि उनकी भाषा अत्यन्त सरल एवं सरस है। जिस काल का कथानक चुना जाता है भाषा उसी के अनुरूप होती है।
      प्रेमचंद भाषा में जनवादी तत्वों को महत्व देने के पक्षपाती थे। उन्होंने भाषा को सरल, बोधगम्य, सहज एवं मुहावरेदार बनाने की बराबर कोशिश की और इस दृष्टि से वे हिंदी के प्रथम उपन्यासकार है जिन्होंने भाषा को यथार्थ रूप देने की सफल चेष्टा की उनकी भाषा के संबंध में डॉ. धीरेन्द्रवर्मा ने ठीक ही लिखा है कि शैलीकार की दृष्टि से प्रेमचंद का स्थान हिंदी साहित्य में असाधारण है। सरल,सुबोध,मुहावरेदार सजीव गद्यशैली का अभ्यास उर्दु लेखक के रूप में वे पहले ही कर चुके हैं। अपने इस अभ्यास को वे अपने साथ ही हिंदी के क्षेत्र में  लेते आये हैं। उनकी भाषा वस्तु, पात्र, देशकाल तीनों के साथ सामंजस्य स्थापित किये हुए है। कभी-कभी उन्होंने कोमलता और मार्मिकता ग्रहण किये हुए काव्यानुकूल भाषा का भी प्रयोग किया है। उनकी भाषा कहावतों और मुहावरों से समन्वित है। पर कहीं भी उन्होंने भाषा को बोझिल होने नहीं दिया है।

 * जी॰ अखिलांडेश्वरी    कर्पगम विश्वविद्यालयकोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. के.पी. पद्मावति अम्माल के निर्देशन में शोधरत हैं ।

2 comments:

देवदत्त प्रसून said...

महावीर हनुमान-जयन्ती की वधाई !
समाज फिर से हो रहा, भ्रष्ट और बदहाल |
भारत तुम्हें पुकारता ओ लमही के लाल !!

Dipu srivastava said...

Bakwas likha hua h.isse achha to Mai likh Sakta hu.
Try again
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.try again..