Saturday, June 8, 2013

एक रिर्पोटर नरेश मिश्रा जैसा !

एक रिर्पोटर नरेश मिश्रा जैसा !
बस्तर इलाके में चल रहे खूनी खेल को कवर करने वाला हीरो

-संजय द्विवेदी

  छत्तीसगढ़ का बस्तर इलाका इन दिनों माओवादी आतंकवादियों के खूनी खेल से नहाया हुआ दिखता है। पिछली 25 मई,2013 को कांग्रेस की परिर्वतन यात्रा पर हुए माओवादी हमले में कांग्रेस के दिग्गज नेता महेंद्र कर्मा, छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, पूर्व विधायक उदय मुदलियार और उनके तमाम साथियों की बर्बर हत्या कर दी गयी। ऐसे हत्याकांड अब बस्तर में आम हैं और वहां रह रहे संवाददाताओं और पत्रकारों के माध्यम से ही हम उस इलाके में हो रही घटनाओं को जानते हैं। इनमें से ही एक टीवी पत्रकार हैं नरेश मिश्रा। 25 मई की घटना को भी नरेश मिश्र और उनके कैमरामैन साथियों की नजर से सबसे पहले पूरी दुनिया ने देखा। घटनास्थल पर सबसे पहले पहुंचकर घायल नेताओं को राहत देने और खबर देने वाले नरेश मिश्रा ही थे। श्री विद्याचरण शुक्ल को भी नरेश ने ही सहारा दिया और जगदलपुर लाने की व्यवस्था बनाई। जबकि हमारा प्रशासन घटना के पांच घंटे बाद वहां पहुंचा।
   नरेश मिश्रा को मैंने पहली बार 2008 में देखा था, हम उस समय जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ ( अब आईबीसी 24) नाम के टीवी चैनल की लांचिंग की तैयारियों में थे और अपनी टीम बना रहे थे। नरेश उन दिनों ईटीवी से जुड़े थे। बस्तर इलाके को लंबे समय से कवर कर रहे थे। जो भी हुआ, उनका चयन हुआ और वे इस चैनल के जगदलपुर के ब्यूरो चीफ बना दिए गए। उसके बाद से आजतक उन्हें इसी चैनल से जुड़कर जैसी खतरनाक और हैरंतगेज कवरेज की है कि देखकर ही दिल दहल जाता है। उनका चैनल जो अब आईबीसी 24 के नाम से चल रहा है नक्सली मामलों के कवरेज में अपने इस एक संवाददाता के बल पर सबसे आगे चलता है। उनकी जांबांजी ही मानिए कि परिर्वतन यात्रा पर हुए हमले को सभी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय चैनलों ने आईबीसी 24 के माध्यम से फीड काटकर दिखाया। घटना के बाद सबसे पहले पहुंचना और मौके से सधे अंदाज में रिर्पोंटिंग का जो नरेश का तरीका है, वह प्रभावित करता है।
   एक रिर्पोटर होने के नाते सिर्फ खबरें नहीं वे मानवता को आगे रखते हैं। घायलों की मदद और उन्हें राहत दिलाने के प्रयास पहले शुरू करते हैं। यह बहस मीडिया में काफी गहरी है कि एक रिर्पोटर पहले खबरें दे कि लोगों की मदद करे। नरेश ने एक साथ दोनों को साधा है। चैनल तो अव्वल और आगे है ही, वे मदद का हाथ बढ़ाने में भी संकोच नहीं करते। नरेश ने पिछले आठ सालों में माओवादी आतंकवाद की रिर्पोटिंग को जिस अंदाज में प्रस्तुत किया है वह पूरे देश के लोगों के दिलों को हिलाकर रख देता है। खबरों के लिहाज से देखें तो माओवादी आतंक की घटनाओं के बाद नरेश अपने ही नहीं, पूरे देश के चैनलों के चहेते बन जाते हैं क्योंकि घटना की पहली खबर और फीड उनके पास ही होती है। अनेक घटनाओं के होने और उसके आगे-पीछे नरेश ने माओवादी आतंक पर अलग-अलग दृष्टिकोण सामने रखे हैं। उनकी कवरेज में गंभीरता है, हल्लाबोल और शोर-शराबा नहीं है। एंकर की उत्तेजना के बावजूद उनके संवाद में एक सादगी है। वे सहजता से संवाद करते हैं। उसमें खबर अपने वीभत्स रूप के बावजूद सहज लगती है।
   माओवादी घटनाओं के वक्त टीवी चैनलों पर अलग-अलग रंग के विशेषज्ञ जो ज्ञान बिखेरते हैं, वह अद्भुत है। यह भी देखना अद्भुत है जिन्होंने छत्तीसगढ़ और उसके दर्द को नहीं देखा, जगदलपुर को नहीं देखा वे कितनी गंभीरता का बाना ओढ़कर ताड़मेटला और चिंतलनार का दर्द बयां करते हैं। नरेश के पास भोगा, देखा और दैनिक सामने उपस्थित यर्थाथ है। वे इसीलिए अपनी रिर्पोटिंग में इतने वस्तुनिष्ट हैं। वे रिपोर्ट करते हुए डराते नहीं बल्कि वहां कठिन हो आई जिंदगी का चेहरा दिखाते हैं। माओवादी हमलों को इतनी जांबाजी से कवर करने वाले नरेश मिश्र को छत्तीसगढ़ में आज भी ज्यादातर लोग इसलिए पहचानते हैं कि वे टीवी में हैं। किंतु आजतक उनके हिस्से कोई प्रसिद्धि, पुरस्कार और सम्मान नहीं आया। हां, उनके अपने लोग ही उनके लिए माओवादियों से उनकी सेटिंग के जुमले जरूर छोड़ते हैं। लोग यह भूल जाते हैं ऐसे हमलों में नरेश ने कितनों की जान बचाई है। नेतनार की कवरेज में मुठभेड़ में घायल पुलिस जवान नरेश से कहता है कि मेरी गोली खत्म हो गयी है मदद करो नहीं तो नक्सली मुझे मार देगें। वहीं ताड़मेटला में माओवादियों द्वारा अगवा कलेक्टर अलेक्स पाल मेनन को जंगल से लेकर चिंतलनार तक सबसे लेकर पहुंचने वाले नरेश को उनके चैनल के अलावा किसी सरकार या किसी सामाजिक संस्था ने भी सम्मानित नहीं किया। नरेश से बात करें तो उनके लिए यह एक जूनून और नशा है। वे कहते हैं सर,सैलरी से समय से मिल जाती है इतना क्या कम है। आप कल्पना करें दिल्ली के राष्ट्रीय चैनलों में बैठे किसी पत्रकार ने ऐसे हौलनाक इलाकों की निरंतर इतनी कवरेज की होती तो उसे सम्मानों की झड़ी लग जाती है। बहादुरी के तमाम तमगे दिए जाते किंतु नरेश के पास कुछ फोन काल्स हैं, जिन पर चैनलों में बैठने वाले कुछ टीवी बहसबाज उनसे कुछ जमीनी जानकारी चाहते हैं ताकि शाम होने पर वे अपने उधार लिए ज्ञान से चैनलों पर परमहंस बन सकें। किंतु नरेश के हिस्से आती हैं कवरेज की जांच, माओवादियों से रिश्तों के आरोप।
    माओवादी हमलों के बाद अब सारा कुछ भूलकर आज नरेश फिर खड़े हैं जगलपुर नगर निगम के दफ्तर के सामने, उन्हें उनके चैनल ने आज शहर की पानी समस्या पर स्टोरी के लिए असाइन किया है। वे उसे भी उसी मनोयोग से कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें रोज तीन स्टोरी देनी है और इसलिए भी क्योंकि वे एक साधारण रिर्पोटर हैं, माओवादी मामलो के जानकार नहीं। ऐसा इसलिए भी क्योंकि बस्तर और वहां हो रही घटनाएं नरेश की रोजी और रोजा दोनों हैं और उनकी चुनौतियां विकिपीडिया व गूगल सर्च से टीवी चैनलों पर ज्ञान दे रही पत्रकारीय जमातों से बहुत बड़ी हैं। माओवादी आतंक से त्रस्त इलाकों पर बहुत कुछ कहा और लिखा गया है किंतु वहां काम कर रहे पत्रकारों और संवाद के संवाहकों से संवाद कौन बनाएगा ?
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

1 comment:

himanshu goswami said...

mai yahaan par jo tippni karne ja raha hu vah ek samalochak ki nazar se hai.Naresh Mishra ji ke kaarya ullekhniya hain ismein koi do mat nahi hai, par aisi bahut si paristhitiyaan aur ghataayein hain jo mere mann me kuch sawaal ko janm de deti hain.
1. naxal problem ki root me aakhir kaun aur kya hai??
2. sabhi prayaason ke baavjood yah ab tak khatm kyon nahi hua??
3. congress leaders par hue is bade hamle mein koi bada neta kaise nahi pahucha, vah bhi us samay jab saari stithi control me thi.
4. tendu patta sangrahan me sabka dhayan rehta hai, jabki sabko pata hai, in sabka paisa kahaan jaata hai, kyonki mai yahaan par saafh arna chauhunga ki nasha se related koi bhi kaam me hone waala phayada galat logn ke paas jaata hai, baaki to aap swayam hi jaante hain.

aise hi bahut saare swaal hain jinke jawaab anuttarit hain.