Wednesday, November 13, 2013

भारतीय उपन्यास साहित्य में तकष़ि शिवशंकर पिल्लै का स्थान

आलेख

तकष़ि शिवशंकर पिल्लै

भारतीय उपन्यास साहित्य में
तकष़ि शिवशंकर पिल्लै का स्थान
          


- लंबोधरन पिल्लै. बी
     
 
    
          विश्व साहित्य की ओर केरलीय भाषा मलयालम प्रदान कर दिया गया सबसे बड़ा देन है ज्ञानपीठ पुरस्कृत स्वर्गीय तकष़ि शिवशंकर पिल्लै I चारों ओर पानी से भरी हुई कुट्टनाड नामक छोटे गाँव से संसार के अलग अलग सभ्यता, संस्कृति और भाषा बोलने वाले लोगों के मन में तकष़ि ने शाश्वत स्थान पा लिया है । इस महान् साहित्यकार ने साधारण लोगों के बीच रह कर अतिसाधारण जीवन बिताया है I हिन्दी भाषी उपन्यास सम्राट स्वर्गीय प्रेमचन्द को जितना आदर और पसन्द करते हैं, केरलीय जनता तकष़ि को उतना ही पसन्द करते हैं और आदर देते हैं I वे उन्हें अपना पथ प्रदर्शक समझते हैं I श्री शिवशंकर पिल्लै को 'तकष़ि' नाम से ही ख्याति मिली है I


·        जन्म: विख्यात कथाकार और उपन्यासकार तकष़ि का जन्म  17अप्रैल 1912 में केरल के आलप्पुष़ा नामक जिला के भीतर का गाँव तकष़ि पर हुआ था I
·        मृत्यु: 10 अप्रैल 1999 में, 86 वर्ष की आयु में तकष़ि गाँव, आलप्पुष़ा जिला, केरल राज्य में I
·        साहित्य में स्थान: मलयालम भाषा के सबसे बडा सामाजिक,साँस्कृतिक,यथार्थवादी उपन्याकार और कहानिकार I
·        विशेषताएँ:मानव जीवन की वास्तविकताएँ अपने कृतियों में अंकित
किया गया कालातीत रचनाओं के प्रणेता I साहित्य के हर विधा  पर अपने प्रतिभा का चमत्कार छापने पर भी उपन्यासकार के रूप में पूरे साहित्य जगत् में सर्वादरणीय जगह पा लिया महाप्रतिभा I प्रेमचन्द के समान दबाये गये लोगों के आवाज़ को उचित स्थान दिया गया मनुष्य-स्नेही रचनाकार I 600 से अधिक  कहानियों के सिवा 1948 में प्रकशित रन्डिडंगष़ि, 1956 में प्रकाशित 'चेम्मीन' और 1978 में प्रकाशित 'कयर' आदि 'मास्टरपीस'

तकष़ि और मलयालम साहित्य

मलयालम केरलीयों की अपनी मातृभाषा है I शिक्षा, साहित्य, सभ्यता, संस्कृति और राजनीति आदि हर क्षेत्र में केरल और मलयाली और किसी प्रदेश और भाषी के पीछे नहीं है I
मलयायम साहित्य में अपना स्थान निर्धारित करते हुए विश्वविख्यात साहित्यकार तकष़ि शिवशंकर पिल्लै ने विनम्रता के साथ इस प्रकार कहा था:-' एक ज़माना था, तब मलयाली और उनका साहित्य पूर्णरूप में रुककर खडा था I तब मनुष्य और उनके साहित्य को रास्ता दिखाकर आगे ले जाने केलिए कुछ लोग आये, उन व्यक्तियों में मुझे भी एक स्थान था- काल, इतिहास के पन्ने में कभी ऎसा लिख जाता तो अपना जीवन कृतार्थ हो सकेंगे 'I (मलयालम से हिन्दी अनुवाद, ' केरल विश्व विद्यालय में किया गया भाषण -उपन्यासकारों के शिल्पशाला-' तकष़ि-1970)
हाँ, मलयालम के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार तकष़ि को कर्नाटक का सीमा मंजेश्वर से तमिलनाड़ के सीमा पारशाला तक के केरल में नहीं, अपितु पूरे संसार के आर-पर विश्व प्रसिद्ध महान् साहित्यकार का परिवेश है I भारत सरकार उन्हें ञानपीठ पुरस्कार देकर सम्मानित किया, ऎसा कर हर भारतीय सम्मानित हुएI       
  

v तकष़ि की रचनाएँ
·        उपन्यास :
§  त्यागत्तिनु प्रतिफलम-1934 में प्रकाशित
§  पतित पंकजम-1935 में प्रकाशित
§  सुशीलन-1938 में प्रकाशित
§  परमार्थन्गल-1945 में प्रकाशित
§  विल्पनक्कारी-1946 में प्रकाशित
§  तलयोड-1947 में प्रकाशित
§  तोट्टियुटे मकन-1947 में प्रकाशित
§  रन्डिडंगष़ि -1948 में प्रकाशित
§  तेण्डिवर्गम-1950 में प्रकाशित
§  अवन्टे स्मरणयिल-1955  में प्रकाशित
§  चेम्मीन-1956 में प्रकाशित
§  औसेप्पिन्टे मक्कल-1959 में प्रकाशित
§  अंजु पेण्णुंगल-1961 में प्रकाशित
§  जीवितं सुन्दरमाण्-1961 में प्रकाशित
§  एणिप्पटिकल-1964 में प्रकाशित
§  धर्म, नितियो अल्ल जीवितम-1965 में प्रकाशित
§  पापि अम्मयुं मक्कलुं-1965 में प्रकाशित
§  माँसतिन्टे विलि-1966 में प्रकाशित
§  अनुभवंगल पालिच्चकल-1967 में प्रकाशित
§  आकाशम-1967 में प्रकाशित
§  चुक्क्-1967 में प्रकाशित
§  व्याकुल माताव्-1968 में प्रकाशित
§  नेल्लुं तेंगयुं-1969 में प्रकाशित
§  पेण्ण्-1969 में प्रकाशित
§  पेण्णायि पिरन्नाल-1970 में प्रकाशित
§  नुरयुं पतयुं -1970 में प्रकाशित
§  कोटिप्पोय मुखंगल-1972 में प्रकाशित
§  कुरे मनुष्यरुटे कथा-1973 में प्रकाशित                  
§  अकत्तलम-1974 में प्रकाशित
§  पुन्नप्र वयलारिन् शेषम-1975 में प्रकाशित
§  अष़ियाक्कुरुक्क्-1977 में प्रकाशित                
§  आद्यकाला नोवलुकल-1977 में प्रकाशित            
§  लघु नोवलुकल-1978 में प्रकाशित
§  कयर-1978 में प्रकाशित
§  बलूणुकल-1982 में प्रकाशित
§  ओरु मनुष्यन्टे मुखम-1983 में प्रकाशित
§  ओरु प्रेमत्तिन्टे बाक्की-1988 में प्रकाशित
§  एरिन्जटंगल-1990 में प्रकाशित

·        कहानी संग्रह : पुतु मलर(1935) से आलिंगनम(1961) तक के 21 पुस्तक
·        नाटक तोट्टिट्टिल्ला-1946 में प्रकाशित
·        आत्मकथा :
§  एन्टे क्कील जीवितं- 1961 में प्रकाशित
§  एन्टे बाल्यकाल कथा- 1967 में प्रकाशित
§  ओरम्मयुटे तीरंगलिल- 1985 में प्रकाशित
·        यात्रा विवरण : अमेरिकन तिरशीला- 1966 में प्रकाशित
                 
रन्डिडंगष़ि उपन्यास

तकष़ी की कृतियों में रूप और भाव की दृष्टि में समानताएँ रखने वाले उनके आरंभकालीन उपन्यास हैं जिनमें 1947 में प्रकाशित तोट्टियुटे मकन (भंगी का बेटा) और 1948 में प्रकाशित रन्डिडंगष़ि आदि मुख्य है I इन दोनों में उनके मार्क्सवादी मनोभाव खुलकर प्रकट होता है I ‘रन्डिडंगष़ि उपन्यासकार के जीवन से अटूट सम्बंध जोड़ने वाला उपन्यास भी है I एक बार एक सह्रदय तकष़ि से उनके प्रिय उपन्यास के बारे में प्रश्न उठाया तो – “रन्डिडंगष़ि मेरी जीवन की अंग है” - निसंकोच उत्तर उन्होंने दिया है आगे उन्होंने व्यक्त किया कि उस पर चित्रित जीवन मेरी अपनी जीवन  है  I   इस उपन्यास द्वारा कुट्टनाड (केरल के आलप्पुष़ा जिला का रमणीय प्रदेश) भारत की नक्शे पर भी नहीं, विश्व के नक्शे पर स्थान पाया है I

रन्डिडंगष़ि उसके लेखक के जीवन से काट दी गयी कथा है I क्योंकि शिवशंकर पिल्लै के पिताजी कुट्टनाट् के तकष़ि नामक स्थान का किसान- ज़मींदार था I पिल्लै ने अपने जन्म से मृत्यु तक का जीवन इधर ही बिताया था I इधर के किसानों के वास्तविक जीवन से वे चिरपरिचित थे I जीवन के कटु अनुभवों और रचना के बने जाने के बारे में विश्व साहित्यकार प्रेमचंद ने एक बार कहा था -' मैं पुस्तको की पाठशाला से नहीं, जीवन की पाठशाला से साहित्य क्षेत्र पर आया था I हाँ, तकष़ि भी ऐसा ही  आया है I इसलिए मडयत्तरा कुंजेप्पन नामक अनुसूचित जाति के किसान-मज़दर को रन्डिडंगष़ि समर्पित करते हुए उन्होंने लिखा है – “मेरे पिताजी के उस प्रिय सेवक (कुंजप्पन) 60 वर्ष तक काम करने के बाद मर गया तो उनका भौतिक शरीर मिट्टी की ओर उठाते समय अपने पिताजी पहले पहल रोया - मैंने देखा था I अपना ज़मींदार एक अच्छे घर बनाकर रहना उनका मोह था, यह भी सफल हुआ I उनका ज़मींदार एक भूस्वामी बनकर आया..... देखा है I उस मडयत्तरा कुंजप्पन के याद केलिए यह पुस्तक सर्पित करता हूँ I कुंजप्पन मरने के वर्षों बाद उनके परम्परा विप्लव और सहमत स्वर लेकर आगे बढे, यहाँ अवश्य परिवर्तन लाया I इस परिवर्तन का आँखों देखा चित्रण विवेच्य उपन्यास में उन्होंने किया है I

सन् 1988 में तकष़ि तिरुवनंतपुरम के केरल विश्वविद्यालय में सी.वी.रामन पिल्लै के सस्मृति भाषण देते हुए कहा है – “विश्वविद्यलय के मलयालम विभाग ने मुझे अनुरोध दिया कि अपने तीन उपन्यासों की रचना और उसके प्रयास के बारे में कुछ जानकारी दे दें I  सूचित किया गया उपन्यास रन्डिडंगष़ि, चेम्मीन और कयर (रस्सी) है I अपने उपन्यास के बारे में स्वयं निर्णय कर बातें करना आसान नहीं है I मुझे डर लगा कि स्वयं घमण्ड का प्रदर्शन....बुरा हैतुम्हें बुरा लगेंगे, फिर भी यह मेरा रहस्य है, जब सामाजिक समस्याएँ मन पर उठ खड़ी होती, तब मैं सुबोध से रचना शुरु करता हूँ I”

      प्रेमचन्द और तकष़ि शिवशंकर पिल्लै विश्वविख्यात उपन्यासकार हैं I प्रेमचन्द भारत की राष्ट्र भाषा हिन्दी में साहित्य रचना कर पूरे संसार के आदर के पात्र हुए तो तकष़ि केरल की राज्य भाषा मलयालम को माध्यम बनाकर वही स्थान पा लिया है I

     गोदान, रंगभूमि और सेवासदन जैसी रचनाएँ प्रेमचन्द का कीर्ति स्तंभ है तो कयर, चेम्मीन और  रन्डिडंगष़ि जैसी कृतियाँ तकष़ि का अपूर्वतम प्रतिभा के दीप स्तंभ हैं I
     गोदान में प्रेमचन्द ने अपना काल और उस ज़माने के पीडितों और पद दलित किसानों को आवाज़ दिया है , रन्डिडंगष़ि में तकष़ि ने भी वही किया है I प्रेमचन्द आदर्शनिष्ठ थथार्थवादी साहित्यकार है, तकष़ि ने भी आदर्शनिष्ठता और थथार्थवादिता का परिचय दिया है I

   गोदन के समान रन्डिडंगष़ि भी मुख्य रूप में किसानों के वेदनाजनक जीवन का अक्षरबद्ध कृति है I गोदान में होरी, धनिया, गोबर और मेहता जैसे कथापात्र है, वैसे कोरन, चिरुता, चात्तन  और पुष्पवेलि औसेप जैसे शोषित और शोषक कथापात्र रन्डिडंगष़ि में पाये जाते हैं I

    गोदन का प्रकाशन 1936 में हुआ तो रन्डिडंगष़ि 1948 में प्रकाशित हुआ   था I पहले में उत्तर भारतीय कथापात्र हैं तो रन्डिडंगष़ि में दक्षिण भारत (केरल) के कथापात्र हैं I उत्तर हो या दक्षिण भारत, किसान, दलित और पीड़ित एवं शोषितों का दर्द समान है, शोषकों या ज़मीन्दारों का चेहरा यहाँ और वहाँ एक समान है I
(कोयंबत्तूर करपगम विश्वविद्यालय में प्रो.(डॉ.) के.पी.पद्मावती अम्मा के मार्गदर्शन में पीएच.डी. के लिए शोधरत हैं ।) (Lembodharan Pillai.B is a Research scholar, under the guidance of Prof. (Dr.) K.P.Padmavathi Amma, Karpagam University , Coimbatore, Tamil Nadu, South India.

1 comment:

शशि said...

उन्हें नमन, उनका उपन्यास रस्सी ख़ोज रही हूं।