Thursday, August 20, 2015

स्त्री के स्वत्व-विघटन का महाकाव्य - ‘छिन्नमस्ता’

स्त्री के स्वत्व-विघटन का महाकाव्य - ‘छिन्नमस्ता
-         सिजी सि.जी.*

स्त्री-विमर्श स्त्री के आत्मबोध, आत्मविशलेषण एवं आत्माभिव्यक्ति का संघर्ष है। सभी सीमित दायरो से निकल कर उसका क्षेत्र आज व्यापक धरातल पर आ गया है। पूर्णतः स्त्री-विमर्श, नारी चेतना का पर्यायवाची नहीं है। स्त्री-विमर्श एक सामूहिक चेतना है, नारी चेतना स्त्री की अस्मिता से जुड़ा अहसास है। परिवार एवं समाज, स्त्री के मुक्ति संघर्ष के दो आयाम है। वह सदा अपने को व्यक्ति के रूप में स्थापित करने के लिए संघर्षशील रही है। "स्त्री विमर्श में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक समानता, काम करने की स्वतंत्रता, स्त्री की निजी सुरक्षा आदि विषयों पर बल दिया गया है। प्रभाखेतान के अनुसार स्त्री विमर्श न मार्क्सवाद है, न पूँजीवाद, स्त्री हर जगह है, हर वाद है, फैलाव में है। मगर संस्कृति के विस्तृत फलक पर आज भी वह वस्तुकरण का शिकार है। वस्तुकरण की इस पारस्परिक प्रक्रिया को पुरुष दृष्टि से देखने और समझने की ज़रूरत है।"1
मनुसंहिता वेदपुराण में भी स्त्री को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। किन्तु इतनी प्रगति पाने पर भी समाज में चाहे भारत में हो या दुनिया के हर कोने में स्त्री की हालत बिगड़ती जा रही है। आदिकाल में स्त्री के व्यवहार का क्षेत्र केवल घर के चार दीवार के बीच में थी। किंतु स्थिति बदल गई दुनिया के हर कोने में, हर क्षेत्र में वह अपनी कदम तो रखी है। फिर भी पितृस्त्तात्मक दुनिया में अब भी वह कैद है। घर नामक सुरक्षा की पिंजड़े में उसे बन्द रखी है। उसके इर्द-गिर्द सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जंजीरें है। उसे अहसास दिया गया है कि घर ही उसकी जिन्दगी है। उसकी अस्मिता एवं अस्तित्व की कोई पहचान ही नहीं। दूसरों के लिए मर-मिटना ही उसकी नियति है। मर्दवादी समाज ने उसे कभी आगे बढ़ने नहीं दिया। स्त्री की अपनी इच्छा-शक्ति एवं आत्मबल से पितृसत्ता द्वारा लिखित सारी नियमों तोड़ना है। अपनी आँसूभरी नियति को नकारना है। स्त्री की चुपी को तोड़ना है, उसे अभिव्यक्ति का मौका हर जगह देना है। स्त्री की समस्या को गहन रूप से देखने - परखने की शक्ति महज एक स्त्री की सोच में ही हो सकती है। स्त्री साहित्य वस्तुतः स्त्री की आत्मानुभूति है यानि जो अनुभूति आज तक दबी हुई थी दमित थी, उत्पीड़ित थी एवं पुरुष समाज द्वारा बहिष्कृत भी है।
उपन्यास में महिला लेखन की विशेष दर्जा दिया गया है। अपने वर्ग एवं जाति की अनूठी अभिव्यंजना द्वारा इन लेखिकाओं ने एक अलग पहचान हासिल की है। नारी को पूरी समानुभूति देने का स्तुत्य प्रयास इन लेखिकाओं ने सफल रूप से किया है। स्त्री की अनुभूति या संवेदनाओं की सफल, सक्षम अभिव्यक्ति स्त्री ही कर सकती है।
‘छिन्नमस्ता’  प्रभाखेतान का तीसरा एवं बहुचर्चित उपन्यास है, जो स्त्री की उत्पीड़न एवं स्वावलंबन की कहानी है। आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास समकालीन हिन्दी उपन्यास जगत् में विलक्षण है। यह प्रभाखेतान का सन् 1993 में राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली से प्रकाशित उपन्यास है। इस उपन्यास में प्रभाजी ने प्रिया, नीना, जुड़ी, कस्तूरीदेवी, दाई माँ, तिलोत्तमा, सरोज आदि नारी पात्रों को लेकर उसके कथानक को पूर्ण आकार दिया है। ‘छिन्नमस्ता’  की नायिका प्रिया की शादी से पूर्व की कहानी प्रभाजी की खुद की कहानी है। उच्चवर्गीय मारवाड़ी परिवार में जन्मी प्रिया का बचपन उपेक्षित, कुंठित एवं भयभीत सहमी हुई लड़की का बचपन है। बचपन से ही प्रिया के जीवन में यातनाओं का दौर चल पड़ा है। हर समय, हर पल, हर मोड़ पर घर में तथा बाहर सताई जानेवाली प्रिया के शारीरिक एवं शोषण की कहानी उसके परिवार से ही शुरू होती है। जब एक संपन्न परिवार में प्रिया के रिश्ते की बात चलती है तो वह विवाह के प्रति आशावादी हो उठती है। किन्तु विडंबना यह है कि विवाह के बाद के कटु अनुभवों से पता चलता है कि घनी परिवार में विवाह होने पर भी स्त्री के जीवन की विद्रूपताएँ समाप्त नहीं होती। प्रिया पहले मन बहलाने के लिए व्यावसायिक जगत् में प्रवेश करता है, किन्तु बाद में वह उसकेलिए जीवन शक्ति बन जाता है। प्रिया मातृ एक भोग वस्तु बन कर नहीं रहना चाहती। पति नरेन्द्र प्रिया पर अपना पति होने का अधिकार थोपना चाहता है। वह बड़े कठोर शब्दों में कहता है "दर असल तुम्हें इतनी खुली छूट देने की गलती मेरी ही थी। मुझे पहले ही चिड़िया के पंख काट डालने चाहिए थे, पर मैं तुम्हारी बातों में आ गया। तुम्हारे इस भोले चेहरे के पीछे एक मक्कार औरत का चेहरा है।"2 प्रिया अपने पूरे जीवन में पति नरेन्द्र द्वारा ही नहीं हर जगह से उसे सच्चा प्यार नहीं मिला। बचपन में माँ ने उसे लड़की होने के कारण टुकराया, वह कहती है, "स्त्री होना मातृ अम्मा की नज़र में पाप है, एक हीन स्थिति है, गुलामी का जत्था है जो बिना मालिक के जी नहीं पाएगा।"3 उसे तो प्यार बचपन में दाई माँ से और बाद में अपने ससुर की रखैल पत्नी छोटी माँ से मिला। दोस्तों की प्रेरणा ही उसे व्यावसायिक जगत् में अपना स्थान बनाने में सहायक सिद्ध हुआ। प्रिया के व्यावसाय में आगे बढ़ते देख कर ईर्ष्यालू नरेन्द्र ने अपनी संपत्ति के बल पर घर तथा - बेटे को छीन लेता है। नरेन्द्र के अहंभावना के कारण वह प्रिया से दूर होती गई। इस घुटन एवं तनाव भरी दांपत्य जीवन का परिणाम विच्छेद में हो जाता है। प्रिया एक जगह कहती है-- "यह मेरी गलती थी कि मैं ने गुलामी स्वीकार ली...गुलाम बने रहने को अपना भाग्य माना।"4 प्रिया की महत्वाकांक्षी भावना ने उसे सारी बन्धनों से आज़ाद कराती है। परिवार के शोषण से जूझती, आर्थिक, आत्माबल से संपन्न स्त्री बन जाती है। पाठकों के समक्ष प्रिया, स्त्री के संकल्प एवं जीवन की अनूठी मिसाल बनती है।
प्रभाखेतान कथानायिका प्रिया के द्वारा हर स्त्री को यह जताना चाहती है कि स्त्री शाक्तीकरण के लिए स्त्री का आर्थिक स्वावलंबन बहुत ज़रूरी ही है। स्त्री की आज़ादी उसकी पर्स से शुरू होती है। प्रिया का आत्म संघर्ष, हर एक नारी का आत्मसंघर्ष है। अपनों के बीच में भी उसका स्थान दोयम दर्जे पर ही है। अतः सभी चुनौतियों से लड़कर दहकता अंगार के रूप में प्रिया का चरित्र हमारे सामने प्रखर एवं तीव्र हो उठता है। पति नरेन्द्र द्वारा बराबर ठोकरे खाकर प्रताड़ित होती प्रिया के लिए प्रेम, विवाह मातृ एक समझौता है-- वह कहती है "मुझे प्रेम, सेक्स, विवाह ये सारे सदियों पुराने घिसे हुए शब्द लगने लगे थे। नहीं, शब्द नहीं, मांस के ताज़ा टुकडे, लहु टपकाते हुए। इन शब्दों के पीछे की दीवानगी और आदिकाल से चली आ रही परंपराओं का चेहरा सिर्फ औरत के आँसुओं से तरबतर है।"5
सच में आज भी स्त्री के लिए प्रिया एक प्रेरणदायक एवं प्रेरक शक्ति है। आम स्त्री की तरह अपनी हालात से समझौता करके चूप रहनेवालों से नहीं है प्रिया। प्रिया अच्छी तरह जानती है कि एक स्वावलंबी स्त्री के लिए अपनी पारंपरिक सीमाओँ को तोड़ना बहुत आसान होता है कभी भी स्त्री का स्थान एक पुरुष पूर्ण नहीं कर सकता इस संदर्भ में वह अपना दोस्त फिलिप से कहती है-- "पुरुष भूमि है, आकाश है, हवा है, अग्नि है, जल है लेकिन स्त्री बीज बनकर धरती के नीचे दबाना जानती है, वक्त आने पर अंकुरित होती है और फिर शाखा - प्रशाखाओं में फैलती हुई पूरा जंगल हो जाती है।"6 यह कहानी नारी की अस्तित्वबोध एवं आत्मबोध की है। स्त्री के इर्द - गिर्द जो भी बंधन है उनके विरोध संघर्ष करती हुई, किसी भी संबंध को अपनी शर्तों पर बना रखनेवाली स्त्री के इस आधुनिक रूप को देख वैशाली देशपांडे लिखती है कि, "प्रिया का यह व्यवहार आधुनिक नारी के उस रूप को उद्घाटित करता है, जो पुरुष प्रधान समाज के अत्याचार के विरोध में खड़ी रहकर अपनी क्षमता को साबित करती है। शोषण के सामने चुनौती बनकर खड़े रहने की क्षमता आज की नारी में आ चुकी है और प्रिया उस नारी का प्रतिनिधित्व कर रही है।"7
प्रिया अपने प्रखर व्यक्तित्व के प्रभाव से, आनेवाली स्त्री समाज की नई पीढ़ी को और भी सशक्त एवं सफल बनाना - चाहती है। प्रिया कथापात्र इस उपन्यास में आधुनिक नारी शक्ति की पहचान बनकर अपने निराले व्यक्तित्व से सदियों से शोषित पीड़ित नारी की पंक्ति से अलग करने में समर्थ बनी है। प्रिया से हमें ज्ञात होता है कि सम्मान कोई देता नहीं, उसे खुद हासिल करना पड़ता है। हर दिशा से उपेक्षा का भाव मिलने पर भी वह अपनी जिन्दगी हँसते हुए जीती नज़र आती है। उसकी यह आशावादी नज़रिया सब स्त्री के लिए दृष्टान्त है। आज की पीड़ित, तड़पती नारी में आत्मबल एवं स्वाभिमान भरने का स्तुत्य कार्य करने में यह सक्षम तथा सफल हुआ है। स्त्री के शिक्षित एवं आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनने से कोई मूलभूत परिवर्तन न आनेवाले है। ज़रूरत है समाज में इस मानसिकता को बदलने की, जिसमें स्त्री को पुरुष से भिन्न समझा जाता है। नारी जीवन के इस संघर्ष को लेकर डॉ. मधु सन्धु लिखती है कि "‘छिन्नमस्ता’ , नारियातना, विद्रोह एवं मुक्ति की गाथा है।"8
अन्ततः कहा जा सकता है कि ‘छिन्नमस्ता’  उपन्यास, नारी शोषण के विभिन्न आयाम तनाव, आक्रोश, हार-जीत, आत्म संघर्ष, आत्मग्लानि, अपमान, घुटन, दमन, नारी जीवन की पीड़ा, आभाव, दांपत्य जीवन की विडम्बनाएँ आदि को अंकित करते हैं। प्रिया के सफल एवं प्रभावी व्यक्तित्व को लेकर गोपाल राय लिखते है कि "यह आधुनिक नारी की त्रासदी और उसके संकल्प का प्रामाणिक दस्तावेज है।"9 इस उपन्यास के द्वारा प्रभाजी के स्त्री विमर्श एवं स्त्री चितंन के साथ-साथ उनकी आत्मकथा की एक झाँकी भी मिलते है। यह स्त्री वर्ग को एक नई दिशा एवं प्रेरणा देने में सफल स्थापित हुआ है। अपनी अस्मिता एवं अस्तित्व की पहचान बनाए रखने के लिए पुरुषवादी समाज से लड़ने की ताकत प्रदान करता है।
संदर्भ सूची :
1. हँस, अक्तूबर 1996 -- पृ.सं. 75
2. ‘छिन्नमस्ता’  -- प्रभाखेतान -- पृ.सं. 11
3. ‘छिन्नमस्ता’  -- प्रभाखेतान -- पृ.सं. 44
4. ‘छिन्नमस्ता’  -- प्रभाखेतान -- पृ.सं. 153
5. ‘छिन्नमस्ता’  -- प्रभाखेतान -- पृ.सं. 124
6. ‘छिन्नमस्ता’  -- प्रभाखेतान -- पृ.सं. 211
7. स्त्रीवाद और महिला उपन्यासकार -- डॉ. वैशाली पाण्डे -- पृ.सं. 186
8. महिला उपन्यासकार -- डॉ. मधुसन्धु -- पृ.सं. 48
9. हिन्दी उपन्यास का इतिहास -- प्रो. गोपाल राय -- पृ.सं. 426
सहायक ग्रन्थ :
1. ‘छिन्नमस्ता’  -- प्रभाखेतान
2. महिला लेखिकाओं के उपन्यास में नारी -- डॉ. हरबंश कौर
3. प्रभा खेतान के उपन्यासों में नारी -- डॉ. अशोक मराठे
4. हिंदी साहित्य में नारी संवेदना -- डॉ. एन.जी दौड़ गौड़र,
   डॉ. डी.बी. पांड्रे
5. ममता कालिया के कथा साहित्य में नारी चेतना -- डॉ. सानप शाम
6. हिन्दी उपन्यास का इतिहास -- प्रो. गोपाल राय
7. आज-कल -- मार्च 2014
8. हँस -- 1996
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* सिजी सी.जी. कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. एस.आर. जयश्री के निर्देशन में शोधरत हैं ।


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