Tuesday, August 25, 2015

मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास 'बेतवा बहती रही' में उर्वशी-पार्श्वीकृत नारी

मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास 'बेतवा बहती रही' में
उर्वशी-पार्श्वीकृत नारी
-         रिजा जे.आर.*

हिंदी साहित्य में बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दौर में नारी चेतना का उदय हुआ है। नारी चेतना में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक क्षेत्र में दबी नारी का विरोध और उसके बाहर आने का प्रयास भी है। समकालीन हिंदी उपन्यास में महिला लेखन को विशेष दर्जा दिया गया है। अपने वर्ग एवं जाति की अनूठी अभिव्यंजना द्वारा लेखिकाओँ ने अलग पहचान हासिल की है। लेखिकाओं ने नारी जीवन पर ही नहीं, उनकी तमाम संवेदनाओं को व्यक्त करने में भी पुरुषों से ज्यादा सफलता पायी गयी है।
मैत्रेयी पुष्पा के सन् 1993 में प्रकाशित उपन्यास है 'बेतवा बहती रहीं'। यह उपन्यास 1995 में उत्तरप्रदेश साहित्य संस्थान द्वारा प्रेमचन्द सम्मान से पुरस्कृत है। इस पुरुष प्रधान समाज में नारी को चाहे वह गाँव में रही या शहरों में, कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी लेखनी द्वारा स्त्री के प्रति होनेवाले खिलाफ संघर्ष घोषित किया है। इस उपन्यास के शीर्षक द्वारा मैत्रेयी जी हमें यह संदेश देती है कि जिसप्रकार नदी बहती हुई गंदगी को साफ करती हुई आगे बहती है उसी प्रकार स्त्री भी जीवन में दुखों और बुरे विचारों को छोड़कर अच्छे विचारों का रोपण करके आगे बढ़ती रहती है। आधुनिकता की दृष्टि से देखें तो यह सच है।
बुंदेलखंड के आँचलिक परिप्रेक्ष्य में यह उपन्यास लिखा गया है। यह प्रेम, वासना, घृणा, हिंसा से भरी एक हृदय द्रावक अछूती कहानी है। पूरे एक अंचल की व्यथा कथा! अर्वशी की यह कथा उसी की क्या, किसी भी ग्रामीण कन्या की व्यथा हो सकती है। विपन्नता का अभिशाप-शोषण और सनातन संघर्ष। एक विवश यातनामय नरकीय जीवन! उर्वशी, दाऊ और उदय इस क्षयग्रस्त समाज में निरंतर ढ़हने को अभिशप्त रहे। सिरसा गाँव, वहाँ उर्वशी ब्याहकर आयी थी। अशिक्षा इस गाँव का शाप है। "बेतवा के किनारे जंगल की तरह उगी मैली बस्तियाँ। भाग्य पर भरोसा रखनेवाले दीन हीन किसान। शोषण के सपत प्रवाह में डूबा समाज। एक अनोखा समाज, अनेक प्रश्नों, प्रश्न चिह्नों से घिरा।"1
यह उपन्यास संपूर्ण नारी जाति का प्रतिबिंब होता है। उर्वशी राजगिरी गाँव के एक साधारण परिवार की कन्या है। घर में पिता, माँ भाई अजीत है। पिताजी ने उर्वशी को नहीं पढ़ाया। केवल भैया को ही पढ़ाया। वह वन विभाग में नौकरी करता है। मीरा उर्वशी की अंतरंग सहेली है। वह गाँव के प्रमुख बरजोरसिंह की पुत्री है। बरजोरसिंह स्वार्थी आदमी है। अपने हित के लिए कुछ भी करने में वे न हिचकते। उदय और विजय मीरा के भाई हैं। विजय खेती देखता और उदय बाहर का आना जाना। दोनों भाइयों ने  काम बाँटकर सुभीता कर लिया था। एक खेतों को जुतवा-सिंचवाकर पुख्ता करता तो दूसरा खाद और उन्नत बीज की व्यवस्था करता।
कन्या होने पर उर्वशी के विवाह कराने का दायित्व अजीत को न था। वह चतुर था। किसी बूढ़े अमीर व्यक्ति से शादी कराना ही उसकी इच्छा थी। लेकिन नाना कर्ज लेकर सिरसा गाँव के सर्वदमन नामक वकील के साथ उर्वशी की शादी बहुत धूम धाम से करते हैं। विवाह के बाद भी वह अपने समाज कार्य नहीं भूलती। उर्वशी का दाम्पत्य जीवन सुखपूर्ण था। लेकिन एक अपाघात में सर्वदमन की मृत्यु हो जाती है। उर्वशी की जिंदगी फिर अंधकार से भरी थी। उसे अपने पुत्र देवेश के साथ वैधव्य भोगना पड़ता है।
सर्वदमन की मृत्यु के बाद वहाँ के बैरागी का जीवन दर्शन बदल गया। "दुर्गुणों के सम्मोहन को त्याग देना ही तो बैराग है। लालसा लोभवृत्ति और वासनामयी कामी इच्छाओं का दमन क्या साधुवृत्ति नहीं? अहं का नाश ही सच्चा सन्यास है।" "यह बैरागी ने तब जाना जब वे संसार को अनछुआ छोड़कर मृत्यु की ओर खिंच चले जा रहे थे।"2
बरजोरसिंह चंदनपुर के प्रधान बन गए। अजीत को डाँग की लकड़ी चोरी-छुपे, बेचने-पकडने के अपराध में नौकरी से सस्पेंट किया जाता है। उर्वशी एक बार फिर अनाथ हो गयी। अपनी ओर से भाई का स्नेह देखकर वह स्वयं बिस्वित थी। अजीत उर्वशी को राजगिरी बुलाकर मीरा के पिता बरजोरसिंह के साथ शादी कराना चाहता है। उसके मन में भाई के इस कुकर्म के विरुद्ध खिलाफ करने की इच्छा थी। लेकिन वह असहाय थी। वह बेतवा नदी के कगार पर पानी को देखती रही-- "ओ बेतवा माइया अब किसी पर आस विशवास नहीं, अपना माँ जाया भाई ही दुसमन बन बैठा तो अब कहाँ ठौर ... जहाँ कहीं गयी दो घड़ी चैन से नकट सकीं। प्रश्नों के लिए पल पल भारी ... समेट माँ मेरे पाप - पुन्न।"3
उर्वशी ने आत्महत्या करने के लिए नदी में छलाँग लगा दी। वहाँ आयी नाव के मल्लाह ने उसकी रक्षा की। अजीत बरजोरसिंह के साथ उर्वशी की शादी करवा देता है। उर्वशी को अपने घर की सौतेली माँ बनकर आ जाती देखकर मीरा स्तब्ध रह जाती है। अपने इकलौते बेटे देबेश के प्यार से वंचित होकर उर्वशी पति के घर पाँव रखती है। मीरा सर्वदमन के दोस्त राघवेन्द्र से शादी करके चली जाती है। अब उर्वशी निर्जीव यंत्र के समान जीवन बिताने लगी। मिरा को अपने घर में देखकर उर्वशी प्रकम्पित हो उठती है। सहसा चेतना शून्य देह में संवेदना का तीव्र संचार। "रोम रोम उससे लिपट जाने को आतुर। अपमान उसका, उर्वशी का या...इस धरती पर जन्मी हर औरत का ... पता नहीं, भीतर कोई शिला भारी होती जा रही थी दम घोटने को।"4
उर्वशी का आगमन बरजोरसिंह को अच्छा लगा। लेकिन अपनी बीमारी की खबर जानकर उनका भीतर का शंकालू जाग उठता है। उर्वशी के सौंदर्य से वह आशंकित हो जाता है। उर्वशी की विपत्ति ही उनका लक्ष्य है।
भाई अजीत और बूढ़े बरजोरसिंह की कुटिल षड़यंत्र में उर्वशी तिलमिल हो जाती है। फिर वह अपने प्रथम पति की याद में अपना जीवन आगे बिनाती रहती है। विजय मिरगी के रोग से मर जाता है। विजय की विधवा किशोरी देवरानी के आगे का जीवन दुविधा में पड़ गया। उसको संभालना उर्वशी का दायित्व है। बचपन से ही जिह्वा पर अंकुश रखने का अभ्यस्त उर्वशी बरजोरसिंह के बेटे उदय के विवाह के संदर्भ में वाक पटु बन जाती है। उर्वशी किशोरी देवरानी का विवाह उदय के साथ करा देती है। उसकी प्रतिक्रिया कठिन थी। उर्वशी बरजोरसिंह के सामने चुनौती बनकर आगे हो जाती है। बरजोरसिंह विद्रोही के रूप में अवसर पाकर उर्वशी को धीमा जहर देते हैं। इसके फलस्वरूप वह किडनी फेलियर की अवस्था में हो जाती है। उर्वशी की अन्तिम इच्छा के अनुसार उनको सिरसा गाँव में उदय, मीरा, बैरागी आदि लोग ले जाते हैं। बेतवा के निर्मल जल में धीरे-धीरे उर्वशी की कंचन काया समा जाती है।
भारतीय समाज में प्रचलित रूढ़ एवं जड़ जाति प्रथा के कारण विशिष्ट एक ही जातियों में विवाह की परंपरा प्रचलित हुई। जिससे नारी के जीवन में अनेकानेक त्रासदियों, पीड़ाओँ और बिड़म्बनाओं का निर्माण हुआ है। "पुत्र ने पिता को एक फटकार में चुपकर दिया। निपट कोरा कन्यादान लेने के लिए कोई राजी नहीं दिख पड़ा तो अजीत ने जल्दी ही दूसरा रास्ता घर लिया ... वर खोजते मारे-मारे फिरे और उर्वशी के जीवन सुख के लिए ऋण का बोझ सिर पर घर ले ... इसे बुद्धिमानी नहीं समझते थे वे।"5
हमारी संस्कृति में स्त्री के बारे में स्वतन्त्र विचार नहीं किया गया है। उसके जीवन के बारे में जो कुछ विचार किया गया है, वह पुरुषों के दृष्टिकोण से हमेशा होता ही रहता है। स्त्री के सुख के लिए वर खोजने फिरने की तैयारी भाई ने की क्योंकि वह जानता है कि उर्वशी सब सह ले सकती है और वह विद्रोह नहीं कर सकती है। कुलशील मर्यादा में स्त्री को चुप्पी साधे बैठना पड़ता है। इस उपन्यास की उर्वशी पार्श्वीकृत एवं संवेदनशील नारी है। मानवतावाद, सहिष्णुता, भाईचारा, विश्वास, सहनशीलता, करुणा, दया, क्षमा, शांति आदि गुणों से वह परिपूर्ण है।
समकालीन उपन्यासकारों में सुपरिचित मैत्रेयी पुष्पा जी का उपन्यास 'बेतवा बहती रही' हाशिए पर छोड़े गए अशरण नारी की संत्रास, कुंठा, पीड़ा, यंत्रणा, अस्मिता आदि को द्योनितत करता है। इसमें चित्रित केंद्र पात्र उर्वशी आज के समाज के सम्मुख रख गया आइना है।
संदर्भ सूची :
1. बेतवा बहती रही -- मैत्रेयी पुष्पा -- आवरण पृष्ठ से
2. वही -- पृ.सं. 67
3. वही -- पृ.सं. 113
4. वही -- पृ.सं. 123
5. वही -- पृ.सं. 25
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*रिजा जे.आर. कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. एस.आर. जयश्री के निर्देशन में शोधरत है।

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