Tuesday, October 24, 2017

विमर्शों के आलोक में शिवमूर्ति का साहित्य

आलेख

विमर्शों के आलोक में शिवमूर्ति का साहित्य
-         रहीम मियाँ

      साहित्य का लक्ष्य ही है वंचित समाज को स्वर प्रदान करना और मानवीय धरातल पर स्थापित करना। इन्हीं वंचितों में एक है स्त्री, किसान और दलितों का समाज। अपने प्राप्य से दरकिनार यह समाज सदा से सृजन की स्रोत सामग्री रही है, स्त्री हो, दलित हो या किसान, ये आज भी हाशिए की श्रेणी में है, पर इनकी दिशा पहले जैसी निरिह नहीं रही है। आर्थिक, राजनीतिक और संवैधानिक अधिकारों के बावजूद किन्हीं मामलों में अंतर्विरोध से भी ग्रसित है। इन्हीं बहुआयामी अग्रगति के साथ इनके अंतर्विरोध आज विमर्शों का नया आख्यान ही रच रहा है।
      शिवमूर्ति ग्रामीण जीवन के कथाकार है तो प्रेमचन्द, रेणू, नागार्जुन जैसे कथाकार ग्राम्य बोध के जनक। इस धरातल पर यह अनिवार्यत विचारणीय ठहरता है कि शिवमूर्ति के पूर्व कथाजगत में जो ग्रामीण जीवन रहा, वहीं तक भारत का गाँव टीका न रहकर वर्तमान भूमंडलीय परिदृश्य में नित नये - नये रुपों को ग्रहण करता रहा है। किसान न तो किसानी में गर्व का अनुभव कर रहा है, न स्त्री अधिकांश में प्रेमचन्दीय आदर्शों को ढ़ो रही है और रही बात दलित की तो आज दलित सद्गति या ठाकुर का कुँआ की भाँति विवश नहीं है, बल्कि आरक्षण की नीति के आधार पर सवर्णों को भी विवश किए हुए है।
शिवमूर्ति के कथा साहित्य का केन्द्र स्त्री, दलित और किसान रहे हैं। ये तीनों किसी न किसी रुप में हजारों वर्षों से समाज में हाशिए पर रहे हैं। स्त्री को एक ओर जहाँ पुरुष की अर्धांगिनी कहा गया वहीं सदा से वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था से शोषित एवं पीड़ित होती रही है। दलित विमर्श और आरक्षण नीति के बावजूद आज भी दलित अपने अस्तित्व एवं अधिकार की लड़ाई लड़ रही है। भारत की आत्मा गाँव में बसने के बावजूद किसानों की स्थिति बद से बदतर है। ऐसे हाशिए पर फेंके गए वर्ग की आवाज बनते हैं शिवमूर्ति, जिन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से स्त्री, दलित एवं किसानी जीवन के यथार्थ एवं मर्म को समाज के लोगों के बीच लाकर प्रस्तुत कर दिया है।
शिवमूर्ति के नारी पात्र न्याय के लिए लड़ते हैं, भले न्याय न मिले, किन्तु वे संघर्षशील है, सत्ता को चुनौती देती है। अकालदण्ड की सुरजी हो, केशर कस्तुरी की केशर, कसाईबाड़ा की शनिचरी हो या तिरिया चरित्तर की विमली।तिरिया चरित्र कहानी में शिवमूर्ति ने दलित वर्ग की स्त्री का कारुणिक चित्रण पेश किया है। कहानी का पात्र विमली पुरुषों के बीच जाकर ईट भट्टे में काम करती है तो केवल अपने माँ – बाप के भरण-पोषण के लिए। उसे अपने ही ससुर द्वारा बलात्कार की पीड़ा झेलनी पड़ती है। ससुर द्वारा विमली पर ही लांछन लगाया जाता है और विमली को पंचायत की क्रूरता झेलनी पड़ती है। एक बात गौर करने की है कि प्रेमचन्द के पंचपरमेश्वर में जहाँ पंच की महीमा दिखाई गई है, वहीं गोदान तक आते – आते प्रेमचन्द का पंच से मोहभंग हो जाता है और वही पंच शिवमूर्ति के यहाँ आते-आते पहले से अधिक क्रूर और आततायी हो चुका है। यह पंच विमली को निरपराध दाग देता है, पर इसका विरोध विमली अवश्य करती है – मुझे पंच का फैसला मंजूर नहीं। पंच अंधा है। पंच बहरा है। पंच में भगवान का सत्त नहीं है। मैं ऐसे फैसले पर थूकती हूँ – आ-क-थू। देखूँ कौन माई का लाल दगनी दागता है।  कुच्ची का कानून कहानी में कुच्ची, विमली की तरह पराश्त नहीं होती है। वह पंचायत के सामने अपनी माँ बनने की अधिकार रक्षा में सफल होती है। कुच्ची बदलते समय में बदलते समाज की  सोच की उद्घोषणा करती नजर आती है। पितृसत्ता के विरोध में मातृसत्ता को स्थापित करने की माँग करती है। उसका यह सवाल ध्यातव्य है – कोख मेरी है तो इसपर हक किसका होगा। शिवमूर्ति ने कोख पर स्त्री के अधिकार के मुद्दे को घर से बाहर पंचायत में लाकर एक नये अधिकार एवं विमर्श को हवा दी है। बिना पति के माँ बनने की बात पर जब सास द्वारा शंका व्यक्त की जाती है तब वह कहती है – किसी का नाम धरना जरुरी है क्या अम्मा? अकेले मेरा नाम काफी नहीं है?“ वह पंचों के स्त्री अस्मिता की लड़ाई लड़ती है और स्पष्ट घोषणा करती है – कुंती माई डर गयी, अंजनी माई डर गयी, सीता की माई डर गयी, लेकिन बालकिसन की माई डरने वाली नहीं है। मेरा बालकिसन पैदा होकर रहेगा।
शिवमूर्ति के स्त्री पात्र पढ़े-लिखे एवं शहरी नहीं है, वे ग्रामीण है, दलित है, किन्तु अन्याय के खिलाफ लड़ने की चेतना से पूर्ण। ये दलित वर्ग की वे स्त्रियाँ है जो हजारों वर्षों से पितृसत्ता के शोषण की शिकार होती आई है, पर अब ये स्त्रियाँ प्रतिरोध करने लगी है। अकालदण्ड में सुरजी हँसिये से सेक्रेटरी के देह का नाजुक हिस्सा काटकर अलग कर देती है - अन्दर का दृश्य बड़ा भयानक है। सिकरेटरी बाबू पलंग पर नंग – धरंग पड़े छटपटा रहे हैं। सुरजी ने हासिए से उसकी देह का नाजुक हिस्सा अलग कर दिया है और पिछवाड़े के रास्ते भागकर अंधेरे में गुम हो गई है। तर्पण में मिस्त्री बहु ललकारती है – ‘’पकड़ – पकड़ भागने न पाये। पोतवा पकड़ कर ऐंठ दे। हमेशा – हमेशा का ग्रह कट जाय।‘’
बनाना रिपब्लिक दलित राजनीति और उसके उभार की कहानी है। जग्गू द्वारा लेखक ने यह दिखा दिया है कि अब दलितों का राजनीतिकरण हो चुका है। ठाकुर द्वारा दलित को कठपुतली बनाकर सत्ता पाने का कुचक्र अब नहीं चलेगा। जग्गू के चुनाव जीतने पर जुलूस का ठाकुर के घर की तरफ न जाना, ठाकुर द्वारा स्वयं जग्गू के जुलूस में माला लेकर पहुँचना और किसी के कहने पर – जरा कमरिया तो लचकाइए ठाकुर, ठाकुर का कमरिया लचकाकर नाचना बदलते समय का यथार्थ है। यह कहानी कफन के आगे का यथार्थ है। कफन से आगे बढ़कर दलित चेतना का क्रांतिकारी
विस्फोट है। घिसु, माधव का कफन के पैसे से शराब पीकर नशे में गिरना दलित समाज की नियति थी तो जग्गू का चुनाव जीतकर ठाकुर को नचाना आज की नियति। ठाकुर द्वारा यह कहना – ‘’अगर पानी पीने से साथ पक्का होता हो तो बाल्टी भर पी जाऊ’’, ठाकुर के कुँआ का अगला विकास है, जहाँ जोखू को गंदा और बदबूदार पानी पीने के लिए मजबूर होना पड़ा था। वहीं बनाना रिपब्लिक में ठाकुर को दलितों के साथ के लिए मजबूर होना पड़  रहा है। कहानी के अंत में ठाकुर के पंजे में पंजा फसाँकर  नाचने वाले दलित बच्चे घिसु-माधव की तरह नशे में धत्त होकर नाचने वाले बच्चे नहीं है बल्कि पंजे से पंजा मिलाकर सीधे वर्ग-संघर्ष करने वाले बच्चे है। तर्पण उपन्यास में दलित झूठ बोलना सीख चुके हैं। यहाँ दलित बलात्कार किए जाने की झूठी रिपोर्ट लिखवाते हैं। वे जान गये हैं कि झूठ बोलकर ही सवर्णों ने दलितों पर हजारों वर्षों तक शोषण किया –  केवल एक झूठ बोलकर कि वे बह्रमा के मुँह से पैदा हुए और हम पैर से, वे हजार साल से हमसे अपना पैर पुजवाते आ रहे हैं। अब एक झूठ बोलने का हमारा दाँव आया है तो हमारे गले में क्यों अटक रहा है। तर्पण के दलित पात्र अपने शोषण का सवर्णों से हिंसक बदला लेने लगे है। चन्दर की नाक क्या कटी सवर्णों की मानो इज्जत उतर गई। जहाँ सवर्ण चमारों से बदला लेना चाहते हैं वहीं चमार भी कट्टे, बम लेकर मुकाबले के लिए तैयार हो जाते हैं। पियारे को अपने मुन्ना पर गर्व होता है कि जो काम इतने वर्षों में वह नहीं कर पाया उसका बेटा कर देता है – कब से जोर जुल्म सह रही है उसकी जाति। पीढ़िया गुजर गई सहते – सहते। कोई माई का लाल न पैदा हुआ मुँहा – मुँही जवाब देने वाला। और आज उसके बेटे ने ऐसा कर दिखाया तो छिपे – छिपे घुमने का क्या मतलब? यह तो दुनिया जहान में डंका पीटकर बताने वाला काम है। लेकिन नाक क्यों काटा? सीधे मूँड़ ही क्यों नहीं काट लिया। मुन्ना का जुर्म पियारे अपने सर ले लेता है और वकील के समझाने पर कहता है – ‘’नहीं वकील साहब। मुझे जेल जाना है। जेल की रोटी खाकर पराश्चित करना है। इस पाप का पराश्चित कि कान-पूँछ दबाकर इतने दिनों तक उन लोगों का जोर - जुल्म सहता रह गया।‘’ पियारे मानो सारे दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, वह जेल नहीं मानो तमाम दलितों का, उनके पुरखों का तर्पण करने जा रहा है। पुलिस के पूछने पर कि कब से प्लान कर रहा था मारने की। वह कहता है – बहुत दिन से सरकार। जब से इसने मेरी बेटी की राह रोकी बल्कि और पहले – पचीसों – पचासों साल पहले। जब से इन लोगों का जोर – जुल्म देखा। एक  युग से या कहिये पिछले जन्म से सरकार। पियारे का यह जवाब तमाम दलित वर्ग के अन्दर कई वर्षों से दबे बदले की आग है, यह सदियों का संताप है जो आज दृढ़तापूर्वक बाहर निकल आया।
आज किसानों की गति और गंतव्य दोनों बदले है। प्रेमचन्द का किसान साहुकारों, जमींदारों द्वारा शोषित था तो आज का किसान सरकारी नीतियों द्वारा शोषित है। कॉरपोरेट बैंकों द्वारा दिए गए कर्ज के भार तले दबे, कुचले किसान आत्महत्या के लिए मजबूर है। आखिरी छलाँग का किसान प्रेमचन्द के किसान की तरह दब्बू एवं कमजोर नहीं है। वह पहलवान है। उसका अट्टाहास दूर तक गूँजता है। अच्छी फसल के लिए कई बार उसे ईनाम मिल चुका है। विश्वनाथ त्रिपाठी जी लिखते है – ‘’पहलवान होरी से ज्यादा सजग, खाते – पीते प्रबुद्ध और इज्जतदार बल्कि प्रतिष्ठित व्यक्तित्व के किसान – खेतिहर है।‘’  पूँजीवादी व्यवस्था धीरे – धीरे किसानों को लील रहा है। बुलेट ट्रेन, रेलवे कॉरिडार, एक्सप्रेस वे एवं कई योजनाओं के नाम पर किसानों की जमीनें हड़पी जा रही है। अतः आज का किसानी जीवन प्रेमचन्द के समय जैसा एकरेखिय नहीं रह गया है। आज किसान खेती को घाटे का काम मानता है। जहाँ सवा सेर गेहूँ का शंकर साधु को भोजन कराकर मोक्ष पाने के लिए कर्ज लेता है और सवा सेर गेहूँ का कर्ज न उतार पाने के कारण अपनी खेत गिरवी रख देता है, वहीं आखिरी छलाँग का किसान पहलवान अपने बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए खेत बेचना चाहता है, क्योंकि वह जानता है कि गड्ढ़े से खोदी गई मिट्टी उस गड्ढ़े को भरने में पूरी नहीं पड़ती।

संदर्भ – ग्रंथ
1.      
  1.                                  1.         मंच - पत्रिका – शिवमूर्ति विशेषांक – जनवरी-मार्च, 2011.
2.       लमही -  ‘’               ‘’             ‘’          - अक्टूबर-दिसम्बर, 2012 .        
3.       संवेद -      ‘’                ‘’            ‘’    - फरवरी-अप्रैल, 2014.
4.       इंडिया इन्साइड – ‘’ ‘’            ‘’     - 2016.
5.       त्रिशुल – उपन्यास – शिवमूर्ति।
6.       तर्पण –   ‘’                        ‘’
7.       आखिरी छलाँग – ‘’           ‘’
8.       कसाईबाड़ा – कहानी – शिवमूर्ति।
9.       केसर कस्तुरी – ‘’                ‘’
10.   तिरिया चरित्र – ‘’                 ‘’
11.   सिरी उपमा जोग – ‘’           ‘’
12.   भारत नाट्यम –     ‘’             ‘’
13.   ख्वाजा ओ मेरे पीर – ‘’       ‘’
14.   बनाना रिपब्लिक –     ‘’         ‘’
15.   कुच्ची का कानून -     ‘’       ‘’
***

सहायक आचार्य,
बानारहाट कार्तिक उराँव हिन्दी गवर्नमेंट कॉलेज
बानारहाट, जलपाईगुडी, पश्चिम बंगाल,
पिन- 735203, फोन- 9832636020.


No comments: